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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल रूढ़ि कम पालित हुई है। जैन-अपभ्रश-चरित-काव्यों में भी इस रूढ़ि का विशेष पालन नहीं हुआ। फिर राजपूताने में पाई जानेवाली 'ढोला मारू' की कहानी भी सीधे ही शुरू होती है । संस्कृत मे लिखे हुए जैनकवि हरिषेणाचार्च के 'कथाकोश' नामक ग्रंथ मे संगृहीत सभी कथाएँ सीधे ही शुरू होती हैं। इससे केवल यह निष्कर्ष निकलता है कि यह प्रथा बहुत व्यापक नहीं थी। मैंने अबतक जो इतिहास के पुराने खेडहरों में आपको भटकाया वह केवल जानकारी बढ़ाने के उद्देश्य से नहीं। मैं इस बात की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता था कि प्राचीनकाल से ही प्राकृत और संस्कृत-कथाओं में श्रोता और वक्ता की परम्परा रखने का नियम चला आ रहा है। जैन-कवियों मे और सूफी कवियों मे इस नियम के पालन में थोड़ी शिथिलता दिखाई पड़ती है; परन्तु अन्यत्र श्रोता-वक्ता का रखना आवश्यक समझा जाता है | ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में भी यह नियम जरूर माना जाता रहा होगा। वैतालपंचविंशति, शुकसप्तति श्रादि कथाओं में भी पूर्वकथा की योजना की गई और रासो मे तो यह योजना स्पष्ट ही मिल जाती है। इस प्रसंग मे ध्यान देने की बात यह है कि विद्यापति की कीर्तिलता मे उस समय के देश-भाषा-साहित्य के गुणानुवादप्रधान चरित-काव्यों के अनेक लक्षण मिलते हैं और यह पुस्तक उस युग के गुणानुवादमूलक चरितकाव्यों में सबसे अधिक प्रामाणिक है। कवि ने उसे 'कहाणी' या 'कथानिका' कहा है जो संभवतः उसके श्राकार की छोटाई के कारण है। उसमें प्रायः उन सभी छन्दों का व्यवहार हुआ है जिनका रासो मे व्यवहार मिलता है। रासो की ही भॉति उसमे सस्कृत और प्राकृत भाषाओं का प्रयोग है और देश्यमिश्रित अपभ्रंश तो वह है ही। ऐसा जान पड़ता है कि उन दिनों ऐतिहासिक व्यक्ति के गुणानुवाद-मूलक चरित-काव्य इसी ढंग से लिखे जाते थे। विद्यापति के सामने ऐसा ही कोई ग्रंथ आदर्शरूप मे उपस्थित था। मैं यह नहीं कहता कि वह ग्रंथ 'पृथ्वीराज रासो' ही था, क्योंकि गद्यपद्यमयी रचना को संस्कृत मे चपू' कहते हैं। किन्तु प्राकृत की पद्यबद्ध कथानों में थोड़ा-थोडा गद्य भी रहा करता था। लीलावती में गद्य है, पर वह नाममात्र का ही है। कीर्तिलता मे गद्य और पद्य दोनों हैं। रासो मे भी गद्य अवश्य रहा होगा। वस्तुतः रासो में बीच-बीच में जो वचनिकाएँ आती है, वे गद्य ही हैं। निस्सन्देह इन वचनिकानों की भाषा में भी परिवर्तन हुना होगा; परन्तु वे इस बात के सबूत के रूप में नाज भी वर्नमान हैं कि उन दिनों की प्राकृत और अपभ्रंश-कथाओं के संपूर्ण लक्षण रासो में मिलते है। पृथ्वीराजरासो चरित-काव्य तो है ही, वह रासो या रासक' काव्य भी है। हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में रासक को गेयरूपक माना है। ये गेयरूपक तीन प्रकार के होते थे- मसूण अर्थात् कोमल, उद्धत और मिश्र । रासक-मिश्र गेयरूपक है । टीका में इन गेयरूपकों के सम्बन्ध में बताया गया है कि इनमें से कुछ तो स्सस्टरूप से कोमल हैं जैसे १. गेयं डोम्बिकाभागप्रस्थानशिकमाणिकाप्रेरणराका क्रीडहल्लीसकरासगोष्ठीश्रीगदिव- रागकाव्यादि । ८-१