पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/७६

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तृतीय व्याख्यान डोम्बिका। इस गेय रूपक के बारे में अधिक विचार करने का अवसर हमें आगे मिलेगा। कुछ दूसरे है, जो स्पष्ट रूप से उद्धतरूपक है, जैसे- भाणक | कुछ ऐसे हैं, जिनमे मसूण की प्रधानता होती है, कुछ उद्धत भी मिल जाता है। कुछ मे उद्धत कम मिला होता है, जैसे- प्रस्थान । कुछ मे अधिक मिला होता है, जैसे-शिङ्गटक । परन्तु ऐसे भी कई हैं, जिनका प्रधान रूप तो उद्धत होता है, फिर भी थोड़ा-बहुत मसूप का प्रवेश हो जाता है। माणिका ऐसा ही है। फिर प्रेरण, रामाक्रीड़, रासक, हल्लीस श्रादि ऐसे ही रूपक हैं। सो, रासक श्रारम्भ मे एक प्रकार उद्धत-प्रयोग-प्रधान गेय रूपक को कहते थे, जिसमे थोड़ा-बहुत 'मसूण' के कोमल प्रयोग भी मिले होते थे। इसमे बहुत-सी नर्तकियों विचित्र ताल-लय के साथ योग देती थीं। यह मसूणोद्धत ढंग का गेय रूपक था। संदेशरासक इसी प्रकार का रूपक है। यह मसण अधिक है। पृथ्वीराजरासो यदि सचमुच ही पृथ्वीराज के काल मे लिखा गया था तो उसमे रासक-काव्य के कुछ-न-कुछ लक्षण भी अवश्य रहे होंगे। सदेशरासन का जिस ढग से प्रारम्भ हुश्रा है, उसी ढंग से रासो का भी प्रारम्भ हुआ है। श्रारम्भ की कई श्राएँ तो बहुत अधिक मिलती हैं। उदाहरण लीजिए-- संदेशरासक-- जइ बहुलदुद्ध संमीलिया य उल्ललइ तंदुला खीरी। ता कणाकुक्कस सहिआ रचडिया मा दडब्बदउ ।। १६ ।। (यदि प्रचुर दूध मिलाकर (वडे घरो मे) तंदुल-स्वीर बनाया जाता है तो गरीब लोग क्या कण-भूसी मिलाकर महे की रखडी न इभकाएँ ?) पृथ्वीराजरासो- पय सक्करी सुभत्तौ, एकत्तौ कनय राय भोयंसी। कर कंसी गुजरीय, रब्बरियं नैव जीचंति ॥ छं० ४३, रू०१६ ॥ (यदि दूध-शक्कर और भात मिलाकर (बडे घरों की) लडकियों राजमोग बनाती हैं तो (गरीब) गुजरी क्या कण-भूस्सीवाली रबडी (मछे की) से न जीवन-निर्वाह करे ?) संदेशरासक- जइ मरहमावछंदे एचइ गवरंगचंगिमा तरुणी। ता किं गाम गहिल्ली ताली सहेण गच्चेइ ।। १५ ॥ (यदि भरत मुनि के बताये रस-भाव-छन्द के अनुसार नव-रग-चगिमा तरणी नाचती है तो क्या गॉव-गहेलरी ताली के शब्दों से (ताल दे-देकर) न नाचे ?) पृथ्वीराजरासा- सत्त खैन श्रावासं, महिलानं मद्द सद्द नूपुरया । सतफल बज्जुन पयसा, पवरियं नैव चालति ।। छ० ४४, रू०१७॥ (सतखंडी महलों में सुन्दरी महिलाएँ नूपुर-ध्वनि के साथ मादक नृत्य करती हैं तो शतफला घुघुची के फल पैरों में बाँधकर पर्वत-कन्याएँ न नाचें ?) इत्यादि ।