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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

६६ हिन्दी साहित्य का आदिकाल संदेशरासक मे युद्ध का कोई प्रसंग नहीं है। पर उद्धव-प्रयोग-प्रधान गेय रूपक में युद्ध का प्रसंग पाना प्रयोगानुकूल ही होगा और युद्धो के साथ प्रेम-लीलाओं का मिश्रण मी प्रयोग और वक्तव्य-विषय के मिश्रण के अनुकूल ही होगा। इससे लगता है कि पृथ्वीराज- गसो प्रारम्भ में ऐसा कथाकाव्य था, जो प्रधान रूप से उद्धत-प्रयोग-प्रधान मसूण-प्रयोग-युक्त गेय रूपक था। उसमे कथानों के भी लक्षण थे और रासकों के भी। हेमचंद्राचार्य ने यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि इन काव्य-रूपों के ये भेद पुराने लोगों के बताए हुए हैं-'पदार्थाभिनयस्वभावानि डोम्बिकादीनि गेयानि रूपकाणि चिरन्तनरुक्तानि । और, उन्होंने पुराने श्राचार्यों के बताए लक्षण भी उद्धत्त किए हैं। धीरे-धीरे इन शब्दों का प्रयोग कुछ घिसे अर्थों में होने लगा। जिस प्रकार 'विलास' नाम देकर चरितकाव्य लिखे गए, 'रूपक' नाम देकर चरितकान्य लिखे गए, 'प्रकाश' नाम देकर चरितकाव्य लिखे गए, उसी प्रकार 'रासो' या 'रासक' नाम देकर भी चरितकाव्य लिखे गए। अब इन कायों के लेखक इन शब्दों का व्यवहार करते होंगे तो अवश्य ही उनके मन मे कुछ-न-कुछ विशिष्ट काव्यरूप रहता होगा। राजपूताने के डिंगल-साहित्य में परवी काल में ये शब्द साधारण चरित-काव्य के नामान्तर हो गए हैं। बहुत से चरितकाव्यों के साथ 'रासो' नाम जुड़ा मिलता है, जैसे- रायमलरासी, राणारासौ, संगतसिंघरासी, रतनरासौ इत्यादि । इसी प्रकार बहुतेरे चरितकाव्यों के साथ 'विलास' शब्द जुड़ा हुश्रा है, जैसे--- राजविलास, जगविलास, विजैविलास, रतनविलास, अभैविलास, भीमविलास । 'विलास' शब्द भी कुछ क्रीड़ा, कुछ खेल आदि की ओर इशारा करता है। इसी प्रकार कुछ काव्यों के नाम के साथ 'रूपक' शब्द जुड़ा हुआ है, जैसे--- राजारूपक, गोगादेरूपक, रावरिणमलरूपक, गजसिंघजीरूपक, इत्यादि | स्पष्ट ही रूपक शब्द किसी अभिनेयता की ओर सकेत करता है। ये शब्द केवल इस बात की ओर संकेत करके विरत हो जाते हैं कि ये काव्य-रूप किसी समय गेय और अमिनेय थे। रासक' का तो इस प्रकार का लक्षण भी मिल जाता है। परन्तु धीरे-धीरे ये भी कथाकाव्य या चरितकाव्य के रूप मे ही याद किए जाने लगे। इनका पुराना रूप क्रमशः मुला दिया गया; परन्तु पृथ्वीराज के काल में यह रूप संपूर्ण रूप से भुलाए नहीं गए थे। इसीलिये पृथ्वीराजरासो में कथा-काव्यों के भी लक्षण मिल जाते हैं और रासकरूप के भी कुछ चिह्न प्राप्त हो जाते हैं। हमने ऊपर कथा के जिन सामान्य लक्षणों का उल्लेख किया है, वे गद्य, पद्य सबमे ही मिलते हैं। इसलिये, यह अनुमान किया जा सकता है कि विद्यापति ने अपनी कहानी का ढाँचा उन दिनों अत्यधिक प्रचलित चरितकाव्यों के आदर्श पर ही बनाया होगा। कीर्तिलता की कहानी भृग और मुंगी के संवादरूप मे कहलवाई गई है। प्रत्येक पल्लव के श्रारम्भ में मुंगी मुंग से प्रश्न करती है और फिर भृग कहानी शुरू करता है। रासो के वर्चमान रूप को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि मूल रासो में भी शुक और शुकी के संवाद की ऐसी ही योजना रही होगी। मेरा अनुमान है कि इस मामूली से इगित को पकडकर हम मूल रासो के कुछ रूप का अन्दाजा लगा सकते हैं। इतने दिनों की ऐतिहासिक कचकचाहट से इतना तो निश्चित हो ही गया है कि परवी काल मे रासो मे बहुत अधिक