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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

६८ हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल किया है। शेष विवाहों मे ऐसी योजना नहीं मिलती। रासो के अन्तिम अश से स्पष्ट है कि इंछिनी और संयोगिता ही मुख्य रानियों हैं और अन्त तक इर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का द्वन्द्व इन्हीं मे चलता है। सो, प्रमुख विवाहों में एक इंछिनी का विवाह है और इस प्रसंग मे शुकी का मिलना काफी संकेतपूर्ण है। इछिनी के विवाह का प्रसंग उत्यापित हुआ है कि तेरहवें समय में अचानक शहाबुद्दीन गोरी के साथ लड़ाई हो जाती है। इस प्रकार हर मौके-वे मौके शहाबुद्दीन प्रायः ही रासो मे श्रा धमकता है। यह सत्य है कि ऐतिहासिक कहानी के लेखक के लिये कथा का मोड अपने वश की बात नहीं होती; किन्तु प्रसग का उत्थापन-अवस्थापन तो उसके वश की बात होती ही है। यहाँ कवि लाचार मालूम देता है। शहाबुद्दीन उसकी गैरजानकारी मे श्रा गया जान पड़ता है। मजेदार बात यह है कि तेरहबा समय- जो 'कवि चन्द-विरचित प्रथिराज रासके सलष जुद्ध पातिसाह ग्रहन नाम त्रयोदश प्रस्ताव है-शुक-शुकी के इस संवाद से अन्त होता है- सुकी सरस सक उच्चरिय प्रेम सहित आनन्द । चालुक्कांसोज्झति संध्यौ सारुडै में चन्द ॥ (दूहा-सं० १५९) अर्थात्, वस्तुतः चालुक्यराज भोरा भीमग के हराने का प्रसग ही चल रहा था कि बीच में शहाबुद्दीन का 'अपटीक्षेपेण' प्रवेश विशेष ध्यान देने योग्य व्यापार नहीं है, और सच पूछिए तो मैं यह बात आपसे छिपाना नही चाहता कि यह बात मेरे मन में समाई हुई है कि चन्द का मूल प्रन्य शुक-शुकी सवाद के रूप मे लिखा गया था । और, जितनाअंश इस संवाद के रूप में है, उतना ही वास्तविक है। विद्यापति की कीर्तिलता के समान रामे में प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में और कदाचित् अन्त मे भी शुक और शुकी की बातचीत उसमें अवश्य रही होगी। चौदहवॉ समय इस प्रकार शुरू होता है- कहै सुकी सुक संभलौ । नींद न आवे मोहि । स्य निरवानिय चंद करि । कथ इक पूछों तोहि ।। सुकी सरिस सुक उच्चयो । धयो नारिसिर चित्त । सयन संयोगिय संमरै । मन में मंडप हित्त ।। धन लड्वी चालुक संध्यौ । वन्थ्यो सेत धुरसांन । इंछनि व्याहि इच्छ करि । कहो सुनहि दे कान ॥ और फिर, इंछिनी-विवाह का कवि ने जमके वर्शन किया है। इससे कुछ अधिक जमके सयोगिता का विवाह-वर्णन किया है और इससे कुछ कम जमके शशिव्रता का | चौदहवें समय के बीच में फिर एक बार शुकी-शुक से इछिनी के नख-शिख का वर्णन पूछती है। ऐसा लगता है कि यहाँ से कोई नया अध्याय शुरू होना चाहिए। पर हुश्रा नहीं है । प्रसंग तो इछिनी-विवाह है ही। प्रश्न इस प्रकार है- बहुरि सुकी सुक सौ कहै, अंग अंग दुति देह । इंछनि इंछ बखानि के मोहि सुनावहु एह ।।