पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/८०

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नृतीय व्याख्यान प्रायः नई कथा शुरू करने या पुरानी कथा के समास करने के समय शुकी द्वारा शुक्र के संभलने और सो न जाने के लिये सावधान करने की बात आ जाती है। कभी-कभी किमी समय के बीच में अचानक इस सॅमलने की हिदायत मिल जाती है और पाठक को यह अनुमान करने का अवसर मिलता है कि मूल रासो मे उस स्थल पर से कथा का कोई नया अध्याय शुरू दुना होगा। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि इसके पहलेवाला अंश प्रक्षिप्त है। उदाहरणार्थ, पचीसवें समय मे राजा के शिकार आदि के ऐसे प्रसग है, जो सुकविजनोचित कम हैं और भट्टभणन्त अधिक । पृथ्वीराज शूकर का पता बतानेवाले एक वधिक के साथ अकेले ही चल पड़ते हैं, सरदार लोग भी अनुगमन करते हैं, अचानक शुकी शुक से पूछ बैठती है कि पृथ्वीराज के गन्धर्व-विवाह की कहानी सुनायो- पुच्छ कथा सुक कहो । समह गंध्रवी सुप्रेमहि ॥ नवन मंमि संजोगि | राज समधरी सुनेमही ।। ।इम चितिय मन ममिझ ॥ कै करो पति जुम्गनि ईसह ईस । पुज्जै सुजम्मीसह ॥ शुक चिति बाल अति लघु सुनत । ततविन विस उपजै तिहि || देव सभा ने जदुव त्रपति । नालकेर दुन अनुसरही ।।६८॥ -पचीसवाँ समय और फिर, एकाएक शशिव्रता के गंधर्व-विवाह की कहानी शुरू हो जाती है, और शुरू भी ऐसी होती है कि समॉ बॅध जाता है। कम प्रसंगों मे रासोकार का कवि-तत्त्व इतना मुखर हुना होगा | निश्चय ही यह चद-जैसे कवि के योग्य रचना है। मुझे ठीक नही मालुम कि किस प्राधार पर 'रासोसार' के लेखक ने शुकी का अर्थ कवि- पत्नी कर लिया है। शायद शुरू मे कवि और कविपत्नी का संवाद देखकर और बाद मे समूचे ग्रथ मे शुक और शुकी का प्रसंग पढकर उन्होंने अनुमान कर लिया हो कि शुक और शुकी कोई और नहीं, कवि चन्द और उनकी पत्नी हैं। बीच-बीच मे शुक और शुकी के स्थान पर 'दुन और दुजी' (द्विजपक्षी) का नाम आ जाता है, और उसपर से भी यह भ्रम हो जाता है कि यहाँ किसी ब्राह्मण और ब्राहाणी का उल्लेख है या उन्हें फिर कोई और परम्परा हाथ लगी हो। पर मेरी धारणा यही है कि शुक-शुकी का ही रासोकार ने दुज-दुजी कहकर उल्लेख किया है। रासो में इन बातों के अन्तरंगप्रमाण उपस्थित है। शीघ्र ही हम इसकी चर्चा करने का अवसर पाएँगे। पचीसचे समय के बाद बहुत दूर तक शुक नौर शुकी का पता नहीं चलता। सैंतीसवें समय मे वे फिर द्विज और द्विजी के रूप में आते हैं। दुज सम दुनी जु उच्चरिय, ससि निसि उज्ज्वल देख । किम तूंअर पाहार पहु गहिय सु असुर नरेस ।। ___ यदि मेरा यह अनुमान ठीक हो कि शुक-शुकी के संवाद के रूप में ही गसो लिखा गया था, तो कहा जा सकता है कि मूल रासो मे शहाबुद्दीन के पाने का यह प्रथम अवसर है।