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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का आदिकाल दीर्घ व्यवधान के बाद पैंतालीसवे समय मे फिर शुक-शुकी-सवाद बीच मे उपस्थित हो श्राता है। शुक-शुकी का प्रसंग आने के पहले यहाँ अप्रासगिक रूप से रामायण की कथा आ गई थी। चौवन छन्दों के बाद पचपनवों छन्द इस प्रकार है- सुकी सुनै सुक उबरै । पुब्ब संजोय प्रताप । जिहि छर अच्छर मुनी छत्र्यो । जिन त्रिय भयो सराप । ५५ ।। -पैतालीसवॉ समय यहाँ से संयोगिता की कहानी शुरू होती है। कहानी का श्रारम्भ इस प्रकार होता है कि कोई मजुघोषा, जिसे बाद मे चलकर रभा कहा गया है, इन्द्र की आज्ञा से ऋषि को छलने गई थी, और ऋषि के पिता द्वारा अभिशप्त होकर मर्त्यलोक मे सयोगिता के रूप मे अवतीर्ण हुई थी। यहीं से संयोगिता के स्वयंवर, विवाह और हरण की कहानी दूर तक चली जाती है। बीच-बीच मे लडाइयाँ भी टपक पहती है, परन्तु प्रेम-व्यापार ठीक ही चलता रहता है। प्रक्षिस अंश इस कथा मे भी बहुत है । सुमन्त मुनि जब अप्सरा पर आकृष्ट होकर उसपर अपना सब जप-तप निछावर करने पर उतारू हो जाते हैं, तब अप्सरा तुलसीदासजी की पत्नी की भाँति कह उठती है, कि मुझसे नहीं, भगवान से प्रेम करो। सगुण भक्ति की प्रशसा भी करती है। सुनते ही लगता है, कि यह प्रसंग तुलसीदासजीवाली कहानी से प्रभावित होकर लिखा जा रहा है। पैंतालीसवें समय के एक सौ अड़तालीसवे दोहे मे तो 'भै चिन प्रीति न होइ' पाता है, जो लगभग इसी प्रकार की तुलसी के रामायण की याद दिलाए बिना नहीं रहता। यह प्रसंग सावधान करता है कि शुक-शुकी का नाम देखकर ही सब बातों को ज्यों-का-त्यों पुराना नहीं मान लिया जा सकता। फिर भी, सयोगिता की कहानी निःसन्देह प्राचीन है। छियालीसवे समय में विनयमंगल है। इस विनयमंगल के बीच शुक शुकी फिर श्रा जाते हैं- निकट सुकी सुक उच्चरय । कर अवलम्बित डार ॥ मवरिय अंब सु अंब लगि । सुनत सु मारनि मार ॥ ७४ ॥ चिनय साल सुक सुकनिदिषि। सर समरिय अपार ।। मानो मदन सुमत्त की। विधि संयोगि सु सार।। ७५ ।। -छियालीसवॉ समय विनयमंगल मे संयोगिता को वधू-धर्म की शिक्षा दी गई है, और विनय की मर्यादा बताई गई है। इस समय में 'इति विनयकाण्ड समाप्स' लिखने के बाद दुजदुजी का संवाद और स्थलों की अपेक्षा जरा विस्तार के साथ आया है। दुज-दुजी को सॅमलने के लिये कहता है, और यहाँ से वे कहानी के श्रोता और वक्ता नहीं रह जाते, बल्कि पद्मावत के शुक की भॉति स्वयं कहानी के पात्र बन जाते हैं और सयोगिता और पृथ्वीराज के प्रेम-घटक के रूप में उपस्थित हो जाते है। पहले तो 'शुक नर मेप धरि साकार' पृथ्वीराज के पास जाता है। उधर दुजी भी उड़कर सयोगिता के पास जाती है ।