पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/८२

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तृतीय व्यायान स्पष्ट हो यहाँ दुन और दुजी पक्षी हैं, ब्राह्मण और ब्राह्मणी नहीं। 'द्विज चले उड्डि कनवज दिसी' आदि पंक्तियों में इसकी स्पष्ट ध्वनि है। यह सैतालीसर्वे समय की कथा है। ___ संभवतः, यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस प्रकार की कथा रुद्रट और हेमचन्द्र के बताए लक्षणों से बहुत दूर नही पडेगी। साहित्यिक दृष्टि से भी यह अंश बहुत उपादेय हुश्रा है। शुक-शुकी के संवादरूप में कथा कहने की योजना तत्काल प्रचलित नियमों के अनुकूल तो थी ही, इसलिये भी आवश्यक थी कि उसमे चद् कवि स्वयं एक पात्र है। किसी दूसरे के मुख से ही अपने बारे मे कुछ कहलवाना कवि को उचित नहीं लगा होगा। इस प्रकार सब दृष्टियों से ऊपर बताए हुए प्रसंग रासो के मूल रूप होंगे। अब संक्षेप में उनकी साहित्यिक दृष्टि से परीक्षा कर लेनी चाहिए। क्योंकि, कथा की परीक्षा इतिहास की दृष्टि से नहीं, काव्य की दृष्टि से होनी चाहिए। पुरानी कथाएँ काव्य ही अधिक हैं, इतिहास वे एकदम नहीं है । ऐतिहासिक काव्यों के बारे में हम अगले व्याख्यान मे कुछ विस्तार से कहने का अवसर पाएँगे। यहाँ संस्कृत की कथाजातीय पुस्तकों को एक क्षण के लिये देख लेना आवश्यक जान पड़ता है। आलंकारिक ग्रंथों के कथा-श्राख्यायिका के लक्षण वाह्य रूप की ओर ही इगित करते हैं। उनका कथा के वक्तव्य वस्तु से कोई सीधा संबंध नहीं है। परवर्ती गद्य-काव्यों मे नाना भो ति के अलंकारों से अलकृत करके सुललित गद्य लिखना ही लेखक का प्रधान उद्देश्य हो गया था। इन काव्यों मे कवि को कहानी कहने की जल्दी नही जान पडती । वह रूपक, दीपक और श्लेप आदि की योजना को ही अपना प्रधान कर्त्तव्य मान लेता है। सुबंधु ने तो यह प्रतिज्ञा ही कर ली थी कि अपने अथ में आदि से अन्त तक श्लेष का निर्वाह करेंगे। इन कथाकारों के मुकुटमणि बाणभट्ट ने कथा की प्रशसा करते हुए मानों अपनी ही रचना के लिये कहा था कि सुस्पष्ट मधुरालाप और भावों से निवात मनोहरा तथा अनुरागवश स्वयमेव शय्या पर उपस्थित अभिनवा वधू की तरह सुगम, कला-विद्या-संबंधी वाक्य-विन्यास के कारण सुश्राव्य और रस के अनुकरण के कारण विना प्रयास समझ में आनेवाले शब्दगुंफवाली कथा किसके हृदय में कौतुकयुक्त प्रेम उत्पन्न नहीं करती १ सहजत्रोव्य दीपक और उपमा अलंकार से सपन्न अपूर्व पदार्थ के समावेश से विरचित अनवरत श्लेपालकार से किंचित् दुवोंध्य कथाकाव्य उज्ज्वल प्रदीप के समान उपादेय चम्पक की कली से गुंथे हुए और बीच-बीच में चमेली के पुष्प से अलंकृत घनसंनिविष्ट मोहनमाला की भाँति किसे श्राकृष्ट नहीं करता ?~ स्फुरत्कलालापविलासकोमला करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम् । रसेन शय्या स्वयमभ्युपागता कथा जनस्यामिनवा वधूरिख ।। हरन्ति कं नोज्ज्वलदीपकोपमैनः पदार्थैरुयपादिता कथा। निरन्तरश्लेषघना सुजातयो महालजश्चम्पककुड्मलैरिव ।। -कादम्बरी अर्थत, संस्कृत के ग्रालंकारिक जिस रम को काव्य की प्रात्मा मानते हैं, जो अगी है, यही कथा और आख्यायिका का भी प्राण है। कथा-काव्य मे कहानी या श्राख्यान गौण है,