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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

७२ हिन्दी साहित्य का आदिकाले अलंकार-योजना गौण है, पदसंघटना भी गौण है, नुत्य है केवल 'रस'। यह रस अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, शब्द से वह अप्रकाश्य है। उसे केवल व्यजित या ध्वनित किया जा सकता है। इस बात में काव्य और कथा-आल्यायिका समान हैं। विशेषता यह है कि कथा-आख्यायिका मे रस के अनुकूल कहानी, अलंकार-योजना और पद-संघटना सभी महत्त्वपूर्ण है, किसी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक पद्य के बन्धन से मुक्त होने के कारण ही गद्य-कवि की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। वह अलंकारों की और पदसंघटना की उपेक्षा नहीं कर सकता । कहानी तो उसका प्रधान वक्तव्य ही है। कहानी के रस को अनुकूल रखकर इन शत्ता का पालन सचमुच ही कठिन है, और इसीलिये संस्कृत के आलोचक ने गद्य को कवित्व की कसौटी कहा है- 'गद्यं कवीनां निकर्ष वदन्ति'। किन्तु, अपभ्रंश और प्राकृत की कथाओं में पद का बन्धन भी लगा हुआ है। अपभ्रंश में भी अलंकार कथा का बहुत महत्त्व-पूर्ण उपादान समझा जाता रहा है। 'णायकुमारचरित मे एक संकेतपूर्ण वाक्य अाया है । सौत के कुचक्र से राजाने नागकुमार की माता के सब अलंकार उतरवा लिए थे। जब नागकुमार लौटा, तब उसने अपनी माता वो ऐसा निरलंकार देखा, मानों कुकवि की लिखी कथा हो। इससे जान पड़ता है, कि अलंकार का प्रभाव कथा को फीका कर देता है। ___ कथा-साहित्य मे असन्जन पुरुषों की चर्चा थोड़ी-बहुत अवश्य आ जाती है। लक्षण- अन्थों में इसे आवश्यक मी मान लिया गश है। संमवतः, उन दिनों के चुगुलखोरों को जवाब देने का यही उपाय रहा हो। तुलसीदासजी ने भी सव इस प्रकार के प्रसंग को मुलाया नहीं है तो दरवारी निदकों से कुछ अधिक गंभीर बात होनी चाहिए। वस्तुतः, जैसा कि बाणमट्ट कह गए हैं, अकारण ही वैर को आविष्कार करनेवाले सज्जनों से सभी डरा करते हैं। कौन ऐसा है जो उनसे न डरता हो ? उनका परुप वचन कालसर्प के दुःसह विष की माँ ति सदा उनके मुँह में सहज भाव से ही विद्यमान रहता है । शायद बाणभट्ट की बात किसी युग-विशेष तक ही सीमित नहीं है, वह आज भी सत्य है और सौ-दो-सौ वर्ष वाद भी सत्य रहेगी। शायद सहृदय जनों के लिए भी चुपके से एकाध वाक्य कहकर मनोव्यथा हल्की कर लेने के सिवा अन्य उपाय न था, न है, न रहेगा। बाणमट्ट के शब्द इस प्रकार हैं- अकारणाविष्कृतवैरदारुणा- . दसज्जनात्कस्यमयं न विद्यते। विषं महाहेरिव यस्य दुवैचो सुदुःसहं सन्निहितं सदा मुखे ॥ सो, कथा में अलंकार और रस की योजना के साथ खल-निंदा को भी आवश्यक माना जाने लगा था। पृथ्वीराजरासो ऐसी ही रसमय सालंकार युद्धवद्ध-कथा था, जिसका मुख्य विषय नायक की प्रेमलीला, कन्याहरण और शत्रुपराजय था। इन्हीं, बातों का मूल रासो में विस्तार रहा होगा। ऊपर जिन अंशों को राखो का पुराना रूप कहा गया है, उनमें, इन्हीं बातों का विस्तार है। यह कहना तो कठिन है कि इससे अधिक उत्तमे कुछ था ही नहीं