पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ व्याख्यान हमारे आलोच्य काल मे ऐतिहासिक पुरुषों के नाम से सम्बद्ध कई काव्य, नाटक और चंपू आदि मिले हैं। पृथ्वीराजरासो के बारे मे हम कह श्राये हैं कि ऐतिहासिक व्यक्ति के नाम से जुड़े रहने के कारण शुल-शुरू में अनुमान किया गया था कि इससे इतिहास का काम निकलेगा। पर यह आशा फलवती नहीं हुई। कम ही ऐतिहासिक पुरुषों के नाम से सम्बद्ध पुस्तकें इतिहास-निर्माण में सहायता कर सकी है। कुछ से ऐतिहासिक तथ्यों, नामों और वंशावलियों का कुछ संधान मिल जाता है। कुछ से इतना भी नहीं मिलता। बहुत पहले से तो नहीं, पर पृथ्वीराज के आविर्भाव के काफी पहले से ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम से सम्बद्ध काव्य-पुस्तकें लिखी जाने लगी थीं। शिलालेखों और ताम्रपट्ट की प्रशत्तियों मे तो ऐसी बात बहुत पुराने जमाने से मिलती है, पर पुस्तक-रूप मे सम- सामयिक राजाओं के नाम से सम्बद्ध रचना सातवी शताब्दी से पहले की नहीं मिली । बाद की शताब्दियों में यह बात बहुत लोकप्रिय हो जाती है और नवीं-दसवीं शताब्दी मे तो संस्कृत-प्राकृत मे ऐसी रचनाएँ काफी बड़ी संख्या में मिलने लगती हैं। ऐसा जान पड़ता है कि भारतीय साहित्य मे यह प्रवृत्ति नई है। सातवी शताब्दी के बाद भारतीय जीवन और साहित्य में अनेक नये उपादान पाए हैं । ऐतिहासिक काव्य भीउनमे एक है। सम्भवतः, तत्काल-प्रचलित देश्यभाषा या अपभ्रंश में ऐसी रचनाएँ अधिक हुई थी। इस काल के संस्कृत-साहित्य मे राजन्तुति का बहुत प्रमुख स्थान है । अपभ्रश की रचनाओं में ऐसी राजस्तुति-परक रचनाओं का होना लाभाविक ही था। कई नवागत जातियों ने, जिनमें भाभीर, गूजर और अनेक राजपूत समझी जानेवाली जातियों भी हैं, राज्य-अधिकार किया था। वे जिन प्रदेशों से आये थे, वहाँ की अनेक रीति-नीति भी साथ ले आए थे। फिर, वे संस्कृत उतनी अच्छी तरह समझ नहीं पाते थे, यद्यपि अपने क्षत्रियत्व का दावा उच्च स्वर से घोषित करने के लिये वे पंडितों का सम्मान भी करते थे और साधारण जनता से अपने को श्रेष्ठ बताने के जितने प्रयत्न सम्भव थे, सभी करते थे | इन उपायों में देशी भाषा की उपेक्षा भी एक था। फिर भी, सचाई यह है कि वे अपभ्रंश मे लिखी स्तुतियों ही समझ सकते थे। इसलिए, अपभ्रंश में तेजी से राजस्तुतिपरक साहित्य की परम्परा स्थापित होने लगी। संस्कृत में भी यह बात थी, पर संस्कृत में और भी सौ बातें थी।