पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/८६

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चतुर्थ ग्याल्यानं ७५ हर्षचरित समसामयिक राजा के नाम के साथ सम्बद्ध प्रथम काव्य है। यद्यपि वह कवि के आश्रयदाता को जीवनचरित है, पर इसमे इतिहास की अपेक्षा कान्य ही प्रधान हो उठा है। हर्ष के जीवन का पूरा चित्र तो इसमे मिलता ही नहीं, उसके राजनीतिक कायों और योजनाओं का भी कोई स्पष्ट परिचय नहीं मिलता। यह भी पता लगाना कठिन ही है कि सम्राट के सम्पर्क में आनेवाले लोगों की क्या स्थिति थी। और तो और, गौड़ और मालपराज-जैसे महत्त्वपूर्ण पात्र भी अस्पष्ट ही रह गए हैं अन्य साधारण व्यक्तियों की तो बात ही क्या है। सब मिलाफर हर्षचरित मे ऐतिहासिक तथ्य नाममात्र को ही है। प्रधानतः वह गद्यकाव्य है। उसकी शैली वही है, अन्तरात्मा वही है, और स्थापन-पद्धति भी वही है। इतिहास-लेखक उससे लाभान्वित हो सकता है। क्योंकि हर्ष के सभा-मण्डल का, ठाट-बाट का, रहन-सहन का, उसे परिचय मिल जाता है, पर उसे सावधान रहना पड़ता है। कौन जाने, कवि कल्पना के प्रवाह में उपमा, रूपक, दीपक या श्लेष की उमग में तथ्य को कितना बढा रहा है, कितना अाच्छादित कर रहा है, कितना दूसरे रंग में रेंग रहा है। इस कवि के लिये कल्पना की दुनिया वास्तविक दुनिया से अविक सत्य है। और वास्तविक जगत् की कोई घटना सिर्फ उसकी कल्पनावृत्ति को उकसाने का सहारा भर है। इस प्रकार इतिहास इसकी दृष्टि मे गौण है। वह केवल कल्पना-वृत्ति को उकसाने के लिये और मनोहरतर जगत् के निर्माण के लिये सहायक मात्र है। विवाह के समय स्त्रियों नाचती-गाती थीं, यह ऐतिहासिक तथ्य है। कवि के लिये इतना सकेत काफी है। फिर, वह कल्पना का जाल बिछा देगा। स्थान-स्थान पण्य-विलासिनियों के नृत्य प्रायोजन को वह इस रूप में चित्रित करेगा, जिससे पाठक का चित्त मदविहल हो जाय। मद-मंद भाव से प्रास्फाल्यमान प्रालिंग्यक नामक वाघ मुखर हो उठेंगे, मधुर शिजनकारी मंजुल वेणुनिनाद से विडमण्डल झनझना उठेगा, झनझनाती हुई झल्लरी के साथ कलकास्य और कोशी के क्वणन अपूर्व ध्वनिजाल उत्पन्न करेगे, उत्ताल ताल से दिमण्डल चटचटा उठेगा, निरतर ताड्यमान तत्री-पटह की गुजार से और मृदु-मधुर झकार के साथ झकृत अलावु-वीणा की मनोहर ध्वनि से नृत्य वाचाल हो उठेगा और श्राप इस अपूर्व मायालोक मे देखेंगे कि सुन्दरियों के कानों में ऋतुसुलभ पुष्प नृत्य के श्राधून-वेग से दोलायित हो रहे हैं और कुकुम-गौर-कान्ति नृत्यचारियों के वेग के साथ सौदर्य-चक्रचाल की सृष्टि कर रही है और बाणभट्ट के मुख से आप उस शोभा और श्री की अपूर्व सम्पत्ति को सुनकर चकित रह जाएंगे। श्रापको मालूम होगा कि वे किशोरियों नृत्य के नाना करणो मे जब भुजलताओं को श्राकाश मे उत्क्षिप्त करती थीं, तो ऐसा लगता था कि उनके कंऋण सूर्यमण्डल को बन्दी बना लेगे, उनकी कनक-मेखला से उलझी हुई कुरएटक-माला उनके मध्य-देश को घेरकर ऐसी शोभित हो रही थी मानों कामाग्नि ही प्रदीप्त होकर उनको बलियत किए है, उनके प्रदीप्त मुखमण्डल से सिन्दूर और अबीर की छटा विच्छुरित हो जाती थी और उस लाल-लाल कान्ति से अरुणायित कुण्डलपत्र इस प्रकार सुशोमित हुया करते थे, मानो चन्दन-द्रुम की सूकुमार लताओं के विलुलित किसलय हों। उनके नीले वासन्ती चित्रक और कौसुम्म वस्त्रों के उत्तरीय जब नृत्य-वेग से श्रापूर्णित हो उठते थे तो मालूम पड़ता था कि