पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ व्याख्यान संभावना उत्पन्न करता है, जलक्रीडा और वनविहार की संभावना की ओर संकेत करता है और कवि को अपनी कल्पना के पख खोल देने का अवसर देता है। उत्तरकाल के ऐतिहासिक काव्यों मे इसकी भरमार है। ऐतिहासिक विद्वान् के लिये संगति मिलाना कठिन हो जाता है। __ वस्तुतः, इस देश मे इतिहास को ठीक आधुनिक अर्थ मे कभी नहीं लिया गया ! बराबर ही ऐतिहासिक व्यक्ति को पौराणिक या काल्पनिक कथानायक बनाने की प्रवृत्ति रही है। कुछ में दैवी शक्ति का आरोप करके पौराणिक बना दिया गया है। जैसे- राम,बुद्ध, कृष्ण आदि और कुछ मे काल्पनिक रोमास का आरोप करके निजधरी कथाओं का आश्रय बना दिया गया है, जैसे उदयन, विक्रमादित्य और हाल | जायसी के रतनसेन, रासो के पृथ्वीराज में तथ्य और कल्पना का--- फैक्ट्स और फिक्शन का- अद्भुत योग हुआ है। कर्मफल की अनिवार्यता मे, दुर्भाग्य और सौभाग्य की अद्भुत शक्ति मैं और मनुष्य के अपूर्व शक्ति-भाण्डार होने मे दृढ़ विश्वास ने इस देश के ऐतिहासिक तथ्यों को सदा काल्पनिक रग मे रेंगा है। यही कारण है कि जब ऐतिहासिक व्यक्तियों का भी चरित्र लिखा जाने लगा, तब भी इतिहास का कार्य नहीं दुया। अन्त तक ये रचनाएँ काव्य ही बन सकी, इतिहास नहीं। फिर भी, निलंधरी कथालो से वे इस अर्थ मे भिन्न थीं कि उनमें वाह्य तथ्यात्मक जगत् से कुछ-न-कुछ योग अवश्य रहता था। कमी-कमी मात्रा में भी कमी-वेशी तो हुआ करती थी, पर योग रहता अवश्य था । निजंधरी कथाएँ अपने-आपमें ही परिपूर्ण होती थीं। जिस प्रकार भारतीय कवि काल्पनिक कथानकों में ऐसी घटनाओं को नहीं आने देता, जो दुःख-परक विरोधो को उकसावे, उसी प्रकार वह ऐतिहासिक कथानकों मे भी करता है। सिद्धान्ततः, काव्य मे उस वस्तु का आना भारतीय कवि उचित नहीं समझता, जो तथ्य और औचित्य की भावनाओं में विरोध उत्पन्न करे, दुःखोद्रेचक विषम परिस्थितियों- ट्रेजिक कण्ट्रेडिशन्स की सृष्टि करे; परन्तु वास्तव जीवन में ऐसी बातें होती ही रहती हैं। इसलिये इतिहासाश्रित काव्य मे भी ऐसी बातें आएंगी ही। बहुत कम कवियों ने ऐसी घटनाओं की उपेक्षा कर जाने की बुद्धि से अपने को मुक्त रखा है। यही कारण है कि इन ऐतिहासिक काव्यों के नाटक को धीरोदात्त बनाने की प्रवृत्ति- ही प्रबल हो गई है, परन्तु वास्तविक जीवन के कर्त्तव्य, द्वन्द्व, आत्मविरोध और श्रात्मप्रतिरोध-जैसी बाते उसमे नहीं आ पातीं। ऐसी बातों के न लाने से इतिहास का रस भी नहीं आ पाता और कथानायक कल्पित पात्र की कोटि में आ जाता है। फिर, जीवन में कमी हास्योद्रेचक अनमिल स्वर भी मिल जाते हैं। संस्कृत-काव्य का कर्ता कुछ अधिक गम्भीर रहने मे विश्वास करता है और ऐसे प्रसगों को छोड़ जाता है। और, ऐसे प्रसगों को तो वह भरसक नहीं आने देना चाहता, जहाँ कथानायक के नैतिक पतन की सूचना मिलने की आशका हो। यदि ऐसे प्रसंगों की वह अवतारणा भी करता है तो घटनाग्री और परिस्थितियों का ऐसा जाल तानता है, जिसमे नायक का कर्त्तव्य उचित रूप में प्रतिभात हो। सब मिलाकर ऐतिहासिक काव्य काल्पनिक