पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ व्याख्यान लिखा कहा जानेवाला 'पृथ्वीराजविजय' हिन्दीभाषियों के निकट परिचित ही है। इसी पुस्तक की हस्तलिपि के प्राप्त होने से पृथ्वीराजरासो का ऐतिहासिक माहात्म्य धूमिल पड गया था और बंगाल की एसियाटिक सोसायटी से प्रकाशित होना बीच ही में बन्द हो गया था। इस पुस्तक के बारे मे हम आगे विशेप भाव से चर्चा करेंगे। एक और ऐतिहासिक पुस्तक अनन्तपुत्र रुद्र-लिखित 'राष्ट्रौढ़ वंश' बताई जाती है। इन सब पुस्तकों के बारे मे एक ही बात सत्य है। इतिहास इनमे कल्पना के श्रागे म्लान हो गया है और ऐतिहासिक, पौराणिक और निजधरी घटनाओं के विचित्र और असन्तुलित मिश्रण से इनका ऐतिहासिक रूप एकदम गौण हो गया है। जैन कवि हेमचन्द्राचार्य का लिखा कुमारपाल चरित या द्याश्रय काव्य है, जिसके प्रथम बीस सर्ग संस्कृत मे हैं और परवी पाठ अध्याय प्राकृत मे | इस काव्य मे कुमारपाल के पूर्वपुरुषों का वृत्तान्त भी है। श्रनहिलवाड़े के इन चौलुक्यों के बारे में जो कुछ लिखा गया है, वह इतिहास-सम्मत माना जाता है। परन्तु, हेमचन्द्राचार्य की मुख्य दृष्टि व्याकरण के प्रयोगों को समझाना है। बाद के पाठ सर्ग प्राकृत में कुमारपाल के वर्णन में हैं। गुजरात के चौलुक्यों के इतिहास की दृष्टि से पुस्तक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार सोमेश्वर की कीर्तिकौमुदी और सुरथोत्सव, बालचन्द्र सूरि का वसन्तविलास और जयचन्द्र सूरि का हम्मीरकाव्य ऐतिहासिक दृष्टि से उल्लेख-योग्य है । अन्तिम पुस्तक मे ऋतु-वर्णन और विहार-वर्णन बहुत सुन्दर है। ___ इन ऐतिहासिक काव्यों मे 'कीर्तिलता का स्थान कुछ विशिष्ट है। यद्यपि यह पुस्तक भी श्राश्रयदाता समसामयिक राजा की कीर्ति गाने के उद्देश्य से ही लिखी गई है और कविजनोचित अलकृत भाषा मे रची गई है तथापि इसमे ऐतिहासिक तथ्य कल्पित घटनाओं या संभावनाओं के द्वारा धूमिल नहीं हो गया है। कीर्तिसिंह का चरित्र बहुत ही स्पष्ट और उज्ज्वल रूप मे चित्रित हुअा है। कवि की लेखनी चित्रकार की उस तूलिका के समान नहीं है, जो छाया और बालोक के सामंजस्य से चित्रों को ग्राह्य बनाती है, बल्कि उस शिल्पी की टॉकी के समान है, जो मूर्तियों के मित्तिगात्र मे उभार देता है, हम उत्कीर्ण मूर्ति के ऊँचाई-निचाई का पूरा-पूरा अनुभव करते हैं। उस काल के मुसलमानो का, हिन्दुओं का, सामन्तों का, शहरों का, लड़ाइयों का, सेना के सिपाहियों का इतना जीवन्त और यथार्थ वर्णन अन्यत्र मिलना कठिन है ! कवि ने जो भी सामने नागया उसका ब्यौरेवार वर्णन करके चित्र को यथार्थ बनाने का प्रयत्न नहीं किया है, बल्कि आवश्यकतानुसार, निर्वाचन, चयन और समंजस योजना के द्वारा चित्र को पूर्ण और सजीव बनाने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार यह काव्य इतिहास की सामग्री से निर्मित होकर भी केवल तथ्य- निरूपक पुस्तक नहीं बना है, बल्कि सचमुच का काव्य बना है । बहुत कम स्थलों पर कविने केवल सभावनाओं को वृहदाकार बनाया है। कीर्तिसिंह का वीररूप भी स्पष्ट हो जाता है और जौनपुर के सुलतान फिरोजशाह के सामने उसका अतिनम्र भक्तिमान् रूप भी भकर हुआ है । इन चित्रणों मे कवि ने कीर्तिसिंह के द्वितीय रूप को दबाने का उज्वलतर रूप में चित्रित करने का प्रयास नहीं किया, बल्कि ऐतिहासिक तथ्य को इस भौति रखने का प्रयत्न किया है कि जिस स्थान पर कथनायक मुकता है, वहाँ भी वह पाठक की सहानुभूति और परिशंसन का पात्र बना रहता है । छंदों के चुनाव में भी कवि ने कुशलता का