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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का आदिकाल सबसे पहले शुकवाली कथानक-रूढ़ि को लिया जाय । शुक और सारिका-तोता और मैना--भारतीय परिवार के बहुत पुराने साथी है। कथाओं में इनसे तीन काम लिए गए हैं-(१) कथा के कहनेवाले श्रोता के रूप मे, (२) कथा की गति को अग्रसर करनेवाले सन्देहवाहक या प्रेम-सम्बन्ध-घटक के रूप मे और (३) कथा के रहस्यों को खोलनेवाले अनपराद्ध मेदिया के रूप में| अन्तिम रूप में सारिका अधिक उपयोगी समझी गई है। बाणभट्ट की कादम्बरी शुक-मुख से कहलवाई गई है और रासो की पूरी कहानी शुक और शुकी-तोता-मैना ! के सम्वादरूप में कहलवाई गई है। मैंने पिछले व्याख्यान में बताया है कि यह शुक-शुकीवाला सम्बाद काफी महत्त्वपूर्ण है और इसके द्वारा हम कथासूत्रों की योजना करके रासो के मूलरूप को पहचान सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि शुक की कथा कहने की शक्तिवाली बात क्रमशः हमारे देश के साहित्य में विशाल रूप ग्रहण करती गई है। शुरू-शुरू में वह काफी सहज-सरल थी। अमरुक के शतक मे एक बहुत ही सुन्दर और स्वामाविक श्लोक श्रआया है-दम्पति ने रात भर प्रेमालाप किया, कम्बस्त शुक सब सुनता रहा। प्रातःकाल सास-जिठानी के सामने ही उसने उन वाक्यों को दुहराना शुरू किया। वधू हैरान | उसे तुरन्त एक युक्ति सूझ गई | कान के कर्णफूल मे पद्मरागमणि का टुकडा था। उसे लेकर उसने शुक के सामने रखा और उस वाचाल मूर्ख ने उसे दाडिम-फल समझकर चोंच मारी। वचन उसका बन्द हुश्रा और लज्जाविहला नववधू ने शान्ति की सांस ली- दम्पत्योर्निशि जल्पतोहशुकेनाकर्णितं यद्वचः तत्मातगुरुसन्निधौ निगदतः श्रुत्वैव तारं वधूः । कर्णालंबितपद्मरागशकलं विन्यस्य चन्च्वाः पुरो जीडार्ता प्रकरोति दाडिमफलव्याजेन वाग्बन्धनम् ॥ -अ० श०१६ यहाँ तक तो चल सकता है। परन्तु, जब शुक को सकलशास्त्रार्थ का वेता कहा जाता है तो सम्भावना को जरूरत से ज्यादा घसीटा जाता है। श्रीहर्षदेव की रत्नावली में नायिका के गोपन-प्रेम का रहस्य सारिका खोलती है। उस मुखरा ने नायिका को सखी से कुछ कहते सुन लिया था और उसी का जप शुरू कर दिया था! सयोगवश राजा और विदूषक को यह बात सुनने को मिल गई और कथा के प्रेमव्यापार मे गर्मी आ गई। राजा ने ठीक ही कहा था कि प्रिया ने अपनी सखी से जो प्रणय-कथा सुनाई हो उसे शिशु शुक और सारिका के मुख से सुनने का अवसर बड़भागियों को ही मिलता है- दुर्वारा मदनव्यथां वहन्त्या कामिन्या यदमिहितं पुरः सखीनाम् । तद्भूयः शुकशिशुसारिकाभिरुक्तं धन्याना श्रवणपथातिथित्वमेति ॥ ' शुक का दूसरा रूप है कथा को गति देनेवाला महत्त्वपूर्ण पात्र । पद्मावत मे वह सही काम करता है और रासो के दो प्रसंगों में उसे यही काम करना पड़ा है। प्रथम प्रसंग है समुद्रशिखरगढ़ की राजकन्या पद्मावती के साथ पृथ्वीराज के विवाह का सम्बन्ध स्थापन और दूसरा है इंछिनी और संयोगिता की प्रतिद्वन्द्विता के समय इंछिनी की वियोग-विधुरा