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८८
हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

८८ हिन्दी-साहित्य का आदिकाल और कवि कथा को ले जाना चाहता है जैसा रासो के कवि ने वर्णन किया है। उन दिनों स्वयंवर-प्रथा वास्तविक जगत् मे समाप्त हो गयी थी; पर कवियो की कल्पना की दुनिया से ऐसी वात लोप नहीं हुई थी। इस काल के कुछ थोडा पहले सन् ११२५ ई० में विल्हण ने विक्रमावचरित में बहुत टीमटाम के साथ एक स्वयंवर का वर्णन किया है। विल्हण चालुक्य राजा विक्रमादित्य के प्रताप का वर्णन करता है । कर्णाट देश के शिलाहारकुल की राजकन्या चन्द्रलेखा रूप और गुण मे इतनी उत्तम और विख्यात थी कि राजतरंगिणी के समान ऐतिहासिक समझे जानेवाले काव्य के लेखक कल्हण ने भी लिखा है कि कश्मीर का राजा हर्ष उसे प्राप्त करने की इच्छा से कर्णाट पर चढ़ाई करने की सोच रहा था। उस राजकन्या का स्वयंवर हुश्रा और वह सर्वसौन्दर्यनिधि राजकन्या विल्हण के श्राश्रयदाता राजा विक्रमादित्य के अतिरिक्त और किसे वरण कर सकती थी ? ऐतिहासिक विद्वान् इस घटना को कवि-कल्पना ही मानते है। इससे केवल इतना ही सूचित होता है कि कवियों की दुनिया से स्वयंवर जैसी मनोमोहक प्रथा समाप्त नहीं हुई थी। पृथ्वीराज-विजय के लेखक ने भी किसी ऐसे आयोजन की कल्पना की हो तो कुछ आश्चर्य नहीं है। राजतरगिणी के लेखक ने भी कविजनोचित्त भाषा मे हर्ष के प्रेमोद्रेक का कारण चित्र-वर्शन ही बताया है और पृथ्वीराज-विजय के कवि के मन में भी कुछ ऐसी ही बात है- हृदये लिखितां पुरः स्थितादपि चित्राचिरां ददर्श यत् । अविदत् परमार्थतस्तत: स मनोराज्यमनोतिशायिनीम् ॥ १२-२५ इसलिये घटना ऐतिहासिक हो या न हो, रासो के कवि की कल्पना मे इसका श्राविवि अवश्य हुआ था। संयोगिता की प्राप्ति ही रासो का चरम उद्देश्य जान पड़ता है। क्षेप इसमे भी है पर कवि ने इसे लिखने में बड़ा मनोयोग दिया है। इस प्रसग मे कवि को ऋतुवर्णन करने का अच्छा बहाना मिल गया है। बहाना तो खोजना ही पड़ता है। संदेशरासक के कवि ने भी एक सुन्दर बहाना खोजा है। वहाँ विरहिणी का संदेशा ले जानेवाला पथिक बार-बार जाने को उत्सुक होता है, पर उस विचारी का दुःख देखकर रुक जाता है और पूछता है कि तुम्हे और भी कुछ कहना है ? कहना तो उसे है हो । प्रसंग बढ़ता जाता है। अन्त में पथिक पूछता है कि कब से तुम्हारा यह हाल है ? फिर एक-एक करके ऋतु-वर्णन चलने लगता है। रासो में पृथ्वीराज जयचंद का यज्ञ विध्वंस करने और संयोगिता को हर लाने की इच्छा से घर से निकलना चाहते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। पृथ्वीराज तो बाहर जाते ही रहते हैं, लड़ना तो उनका स्वभाव ही है और कन्याहरण और विवाह मी नया नहीं होने जा रहा है। १. काठभक्षुः पर्माने सुन्दरी चन्दलाभिधाम् । आलेख्यलिखितां वीक्ष्य सोऽभूत पुष्पायुधाहतः॥ स विटो चितो बीतत्रपश्चक्रे समान्तरे । प्रतिज्ञां चन्दलावात्यै पश्चि विजोडने ॥ -राजतरंगिणी, ७,११२४