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ज्ञानाश्रयी शाखा


सांराश यह कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचार-पद्धति में ज्ञानमार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिये हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने 'भारतीय ब्रह्मवाद' के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्वाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना-पंथ खड़ा किया। उसकी बानी में ये सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं।

यद्यपि कबीर की बानी 'निर्गुण बानी' कहलाती हैं पर उपासनाक्षेत्र में ब्रह्म निर्गुण नहीं बना रह सकता। सेव्य-सेवक भाव में स्वामी में कृपा, क्षमा, औदार्य्य आदि गुणों का आरोप हो ही जाता है। इसीलिये कबीर के वचनों में कहीं तो निरुपाधि निर्गुण ब्रह्मसत्ता का संकेत मिलता है, जैसे––

पंडित मिथ्या करहु विचारा। ना वह सृष्टि, न सिरजनहारा॥
जोति-सरूप काल नह उहँवाँ, बचन न आहि सरीरा॥
थूल अथूल पवन नहिं पावक, रवि ससि धरनि न नीरा॥

और कहीं सर्ववाद की झलक मिलती है, जैसे––

आपुहि देवा आपुहि पाती। आपुहिं कुल आपुहि है जाती॥

और कहीं सोपाधि ईश्वर की जैसे––

साईं के सब जीव हैं कोरी कुंजर दोय।

सारांश यह कि कबीर में ज्ञानमार्ग की जहाँ तक बाते हैं वे सब हिंदू शास्त्रों की हैं जिनका संचय उन्होंने रामानंदजी के उपदेशों से किया। माया, जीव, ब्रह्म, तत्त्वमसि, आठ मैथुन (अष्टमैथुन), त्रिकुटी, छः रिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ, क्योंकि वे, जैसा कि प्रसिद्ध है, कुछ पढ़े लिखे न थे। उपनिषद् की ब्रह्मविद्या के संबंध में वे कहते हैं––

तत्वमसी इनके उपदेसा। ई उपनीषद कहैं सँदेसा॥
जागबलिक औ जनक सँबादा। दत्तात्रेय बहै रस स्वादा॥