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हिंदी-साहित्य का इतिहास

पोथियाँ अब तक रखी हैं। और निर्गुणपंथियों के समान दादूपंथी लोग भी अपने को निरंजन निराकार का उपासक बताते हैं। ये लोग न तिलक लगाते हैं न कंठी पहनते हैं, साथ में एक सुमिरनी रखते हैं और 'सत्तराम' कहकर अभिवादन करते हैं।

दादू की बानी अधिकतर कबीर की साखी से मिलते-जुलते दोहों में हैं, कही कहीं गाने के पद भी हैं। भाषा मिली जुली पच्छिमी हिन्दी है जिसमें राजस्थानी का मेल भी है। इन्होंने कुछ पद गुजराती, राजस्थानी और पंजाबी में भी कहे हैं। कबीर के समान पूरबी हिंदी का व्यवहार इन्होंने नहीं किया है। इनकी रचना में अरबी फारसी के शब्द अधिक आए हैं और प्रेमतत्त्व की व्यंजना अधिक है। घट के भीतर के रहस्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति इनमें बहुत कम है। दादू की बानी में यद्यपि उक्तियों का वह चमत्कार नहीं है जो कबीर की बानी में मिलता है, पर प्रेम भाव का निरूपण अधिक सरस और गंभीर है। कबीर के समान खंडन और वाद-विवाद से इन्हें रुचि नहीं थी। इनकी बानी में भी वे ही प्रसंग हैं जो निर्गुणमार्गियों की बानियों में साधारणतः आया करते हैं––जैसे ईश्वर की व्यापकता, सत्तगुरु की महिमा, जाति पाँति का निराकरण, हिंदू मुसलमानों का अभेद, संसार की अनित्यता, आत्मबोध इत्यादि। इनकी रचना का कुछ अनुमान नीचे उद्धृत पद्यों से हो सकता है––

धीव दूध में रमि रह्या व्यापक सब ही ठौर। दादू बकता बहुत हैं, मथि काढ़े ते और॥
वह मसीत यह देहरा सतगुरु दिया दिखाइ। भीतर सेवा बंदगी बाहिर काहे जाइ॥
दादू देख दयाल को सकल रहा भरपूर। रोम रोम में रमि रह्या, तू जनि जानै दूर॥
केते पारखि पचि मुए कीमति कही न जाई। दादू सब हैरान हैं गूँगे का गुड़ खाइ॥
जब मन लागे राम सों तब अनत काहे को जाइ। दादू पाणी लूण ज्यों ऐसे रहै समाइ॥


भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा॥
वाद विवाद-काहु सौं नाहीं मैं हूँ जग ते न्यारा॥
समदृष्टी सूँ भाई सहज में आपहि आप बिचारा॥