इत्यादि ही पढ़ सकते हैं। केवल एक हस्तलिखित प्रति हिंदू- विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ऐसी है जिसमे साफ 'मनोहर' पाठ है। उसमान की 'चित्रावली' में मधुमालती का जो उल्लेख है उसमें भी कुँवर का नाम 'मनोहर' ही है––
मधुमालति होइ रूप देखावा। प्रेम मनोहर होइ तहँ आवा॥
यही नाम 'मधुमालती' की उपलब्ध प्रतियों में भी पाया जाता है।
'पद्मावत' के पहले 'मधुमालती' की बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। जैन कवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित में संवत् १६६० के आसपास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट-बाजार में जाना छोड़, घर में पड़े-पडे 'मृगावती' और 'मधुमालती' नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था––
तब घर में बैठे रहै, नाहिंन हाट-बजार। मधुमालती, मृगावती, पोथी दोय उचार॥
इसके उपरांत दक्षिण के शायर नसरती ने भी (संवत् १७००) 'मधुमालती' के आधार पर दक्खिनी उर्दू में 'गुलशने-इश्क' के नाम से एक प्रेम-कहानी लिखी।
कवित्त-सवैया बनानेवाले एक 'मंझन' पीछे हुए हैं जिन्हें इनसे सर्वथा पृथक् समझना चाहिए।
मलिक मुहम्मद जायसी––ये प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन) के शिष्य थे और जायस में रहते थे। इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आखिरी कलाम' के नाम से फारसी अक्षरों में छपी मिली है। यह सन् ९३६ हिजरी में (सन् १५२८ ईसवी के लगभग) बाबर के समय में लिखी गई थी। इसमें बाबर बादशाह की प्रशंसा है। इस पुस्तक में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने जन्म के संबंध में लिखा है––
भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरस ऊपर कबि बदी॥
इन पक्तियों का ठीक तात्पर्य नहीं खुलता। जन्मकाल ९०० हिजरी मानें तो दूसरी पंक्ति का अर्थ यही निकलेगा कि जन्म से ३० वर्ष पीछे जायसी कविता करने लगे और इस पुस्तक के कुछ पद्य उन्होंने बनाए।