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प्रेममार्गी (सूफी) शाखा

तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥
गुरू सुआ जेई पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा?
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा॥
राघव दूत सोई सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू॥

यद्यपि पदमावत की रचना संस्कृत प्रबंध-काव्यों की सर्गबद्ध पद्धति पर नहीं है, फ़ारसी की मसनवी-शैली पर है, पर शृंगार, वीर आदि के वर्णन चली आती हुई भारतीय काव्य-पंरपरा के अनुसार ही है। इसका पूर्वार्द्ध तो एकांत प्रेममार्ग का ही आभास देता है, पर उत्तरार्द्ध में लोकपक्ष का भी विधान है। पद्मिनी के रूप का जो वर्णन जायसी ने किया है, वह, पाठक को सौंदर्य की लोकोत्तर भावना में मग्न करनेवाला है। अनेक प्रकार के अलंकारों की योजना उसमें पाई जाती है। कुछ पद्य देखिए––

सरवर तीर पदमिनी आई। खोपा छोरि केस मुकलाई॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि बासा। नागिनि झाँपि लीन्ह चहुँ पासा॥
ओनई घटा परी जग छाँहा। ससि कै सरन लीन्ह जनु राहा॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा। मेघ घटा महँ चंद देखावा॥

पद्मिनी के रूप वर्णन में जायसी ने कहीं कही उस अनंत सौंदर्य की ओर, जिसके विरह में यह सारी सृष्टि, व्याकुल सी है, बड़े सुंदर संकेत किए हैं––

बरुनी का बरनौं इमि बनी। साधे बान जानु दुइ अनी॥
उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाहिं न गने। वै सब बान ओहि कै हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहि सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढें। सूतहिं सूत बेध अस गाढें॥
बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बनढाख॥
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

इसी प्रकार योगी रतनसेन के कठिन मार्ग के वर्णन में साधक के मार्ग के विध्नों (काम, क्रोध आदि विकारों) की व्यंजना की है––

ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई। तब हम कह कहब पुरुष भल सोई॥