पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
११२
हिंदी-साहित्य का इतिहास

नूरमुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियो से अधिक था। फारसी में इन्होने एक दीवान के अतिरिक्त 'रौजतुल हकायक' इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थी जो असावधानी के कारण नष्ट हो गई। इन्होंने ११५७ हिजरी (संवत् १८०१) में 'इंद्रावती' नामक एक सुंदर आख्यान-काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेम-कहानी है। कवि ने प्रथानुसार उस समय के शासक मुहम्मदशाह की प्रशंसा इस प्रकार की है––

करौं मुहम्मदसाह बखानू। है सूरज देहली सुलतानू॥
धरमपथ जग बीच चलावा। निबर न सबरे सों पावा॥
बहुतै सलातीन जग केरे। आइ सहास बने हैं चेरे॥
सब काहू पर दाया धरई। धरम सहित सुलतानी करई॥

कवि ने अपनी कहानी की भूमिका इस प्रकार बाँधी है––

मन-दृग सों इक राति मझारा। सूझि परा मोहि सब संसारा॥
देखेउँ एक नीक फुलवारी। देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी॥
दोउ मुख सोभा बरनि न जाई। चंद सुरुज उतरे भुई आई॥
तपी एक देखेउँ तेहि ठाऊँ। फूछेउँ तासौ तिन्हकर नाऊँ॥
कहा अहै राजा औ रानी। इंद्रावति औ कुँवर गियानी॥

आगमपुर इंद्रावती, कुँवर कलिंजर राय।
प्रेम हुँते दोउन्ह कह दीन्हा अलख मिलाय॥

कवि ने जायसी के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी-पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।

इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है जिसका नाम है। 'अनुराग-बाँसुरी'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो और सब सूफी-रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित हैं। दूसरी बात है हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव। 'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूरमुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था। कि "तुम मुसलमान होकर हिंदी-भाषा में रचना करने क्यों गए"। इसी से 'अनुराग-बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी––