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प्रेममागी (सूफी) शाखा

जानत है वह सिरजनहारा। जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू-मग पर पाँव न राखेउँ। का जौ बहुतै हिंदी भाखेउँ॥
मन इसलाम मिरिकलै माँजेउँ। दीन जेंवरी,करकस भॉजेउँ॥
जहँ रसुल अल्लाह पियारा। उम्मत को भुक्तावनहार॥
तहाँ दूसरी कैसे भावै। जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

इसका तात्पर्य यह है कि संवत् १८०० तक आते आते मुसलमान हिंदी से किराना खींचने लगे थे। हिंदी हिंदुओं के लिये छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने की भाषा वे विदेशी अर्थात् फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे 'उर्दू' कहते हैं उसका उस समय तक साहित्य में कोई स्थान न था, इसका स्पष्ट आभास नूरमुहम्मद के इस कथन से मिलता है––

कामयाब यह कौन जगावा। फिर हिंदी भाखै पर आवा॥
छाँडि पारसी कद नबातै। अरुझाना हिंदी रस-बातै॥

"अनुराग-बाँसुरी" का रचना-काल ११७८ हिजरी अर्थात् संवत् १८२१ है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्त्वज्ञान-संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों आदि को लेकर पूरा अव्यवसित रूपक (Allegory) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों के बीच बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता हैं, पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक है। एक विशेषता और है। चौपाइयो के बीच-बीच में इन्होंने दोहे न रखकर बरवै रखे है। प्रयोग भी ऐसे ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियो में नहीं आए हैं। काव्यभाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं कही व्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं। रचना का थोड़ा सा नमूना नीचे दिया जाता है––

}}नगर एक मूरतिपुर नाऊँ। राजा जीव रहै तेहि ठाऊँ॥
का बरनौं वह नगर सुहावन। नगर सुहावने सब मन भावन॥

इहै सरीर सुहावन मूरतिपूर।
इहै जीव राजा, जिव जाहु न दूर॥