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प्रकरण ४
सगुण धारा

रामभक्ति-शाखा

जगत्प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्यजी ने जिस अद्वैतवाद का निरूपण किया था वह भक्ति के सन्निवेश के उपयुक्त न था। यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक् प्रसार के लिये जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य्य जी (सं॰ १०७३) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते है। अतः इन जीवो के लिये उद्धार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अशी का सामीप्य लाभ करने का यत्न करें। रामानुजजी की शिष्य-परंपरा देश में बराबर फैलती गई और जनता भक्तिमार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुजजी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है। इस संप्रदाय मे अनेक अच्छे साधु महात्मा बराबर होते गए।

विक्रम की १४वीं शताब्दी के अंत में वैष्णव श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य्य श्री राघवानंद जी काशी में रहते थे। अपनी अधिक अवस्था होते देख वे बराबर इस चिंता में रहा करते कि मेरे उपरांत संप्रदाय के सिद्धात की रक्षा किस प्रकार हो सकेगी। अंत में राघवानंदजी रामानंदजी को दीक्षा प्रदान कर निश्चित हुए और थोड़े दिनों में परलोकवासी हुए। कहते है कि रामानंदजी ने भारतवर्ष का पर्यटन करके अपने संप्रदाय का प्रचार किया।

स्वामी रामानंदजी के समय के संबंध में कहीं कोई लेख न मिलने से हमें उसके निश्चय के लिये कुछ आनुषंगिक बातों का सहारा लेना पड़ता है।