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हिंदी-साहित्य का इतिहास

है। इस दशा में स्थूल रूप से उनका समय विक्रम की १५वीं शती के चतुर्थ और १६वीं शती के तृतीय चरण के भीतर माना जा सकता है।

'श्रीरामार्चन-पद्धति' में रामानंदजी ने अपनी पूरी गुरु-परंपरा दी हैं। उसके अनुसार रामानुजाचार्य जी रामानंदजी से १४ पीढ़ी ऊपर थे। रामानुजाचार्यजी का परलोकवास संवत् ११९४ में हुआ। अब १४ पीढ़ियों के लिये यदि हम ३७० वर्ष रखें तो रामानंदजी का समय प्रायः वही आता है। जो ऊपर दिया गया है। रामानंदजी की और कोई वृत्त ज्ञात नहीं है।

तत्त्वत: रामानुजाचार्य के मतावलंबी होने पर भी अपनी उपासनापद्धति का इन्होने विशेष रूप रखा। इन्होने उपासना के लिये बैकुठ-निवासी बिष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला-विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेव राम हुए और मूलमंत्र हुआ राम-नाम। पर इससे यह न समझना चाहिए कि इसके पूर्व देश में रामोपासक भक्त होते ही न थे। रामानुजाचार्य जी ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया उसके प्रवर्त्तक शठकोपाचार्य उनसे पाँच पीढ़ी पहले हुए है। उन्होने अपनी 'सहस्रगीति' में कहा है––"दशरथस्य सुत तं बिना अन्यशरणवान्नास्मि"। श्री रामानुज के पीछे उनके शिष्य कुरेश स्वामी हुए जिनकी "पंचस्तवी" में राम की विशेष भक्ति स्पष्ट झलकती है। रामानंदजी ने केवल यह किया कि विष्णु के अन्य रूपो में 'रामरूप' को ही लोक के लिये अधिक कल्याणकारी समझ छाँट लिया और एक सबल सप्रदाय का संगठन किया। इसके साथ ही साथ उन्होनें उदारतापूर्वक मनुष्य मात्र को इस सुलभ सगुण भक्ति का अधिकारी माना और देशभेद, वर्णभेद, जातिभेद आदि का विचार भक्तिमार्ग से दूर रखा। यह बात उन्होने सिद्बों या नाथ पंथियों की देखादेखी नही की, बल्कि भगवद्भक्ति के संबंध में महाभारत, पुराण आदि में कथित सिद्धांत के अनुसार की। रामानुज संप्रदाय से दीक्षा केवल द्विजातियों को दी जाती थी, पर स्वामी रामानंद ने राम-भक्ति का द्वार सब जातियों के लिये खोल दिया और एक उत्साही विरक्त दल का संघटन किया जो आज भी 'वैरागी' के नाम से प्रसिद्ध है। अयोध्या, चित्रकूट आदि आज भी वैरागियों के मुख्य स्थान हैं।