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रामभक्ति-शाखा

भक्ति-मार्ग में इनकी इस उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है––जैसा कि कुछ लोग समझा और कहा करते हैं––कि रामानंदजी वर्णाश्रम के विरोधी थे। समाज के लिये वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्न भिन्न कर्त्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सब को समान अधिकार स्वीकार किया। भगवद्भक्ति में वे किसी भेदभाव को आश्रय नहीं देते थे। कर्म के क्षेत्र में शास्त्र-मर्यादा इन्हें मान्य थी; पर उपासना के क्षेत्र में किसी प्रकार का लौकिक प्रतिबंध ये नही मानते थे। सब जाति के लोगों को एकत्र कर राम-भक्ति का उपदेश ये करने लगे और राम-नाम की महिमा सुनाने लगे।

रामानंदजी के ये शिष्य प्रसिद्ध है––कबीरदास, रैदास, सेन नाई और गाँगरौनगढ़ के राजा पीपा, जो विरक्त होकर पक्के भक्त हुए।

रामानंदजी के रचे हुए केवल दो संस्कृत के ग्रंथ मिलते है––वैष्णवमताब्ज भास्कर और श्रीरामार्चन-पद्धति। और कोई ग्रंथ इनका आज तक नहीं मिला है।

इधर साप्रदायिक झगड़े के कारण कुछ नए ग्रंथ रचे जाकर रामानंदजी के नाम से प्रसिद्ध किए गए हैं––जैसे, ब्रह्मसूत्रों पर आनंद भाष्य और भगवद्गीताभाष्य––जिनके संबंध में सावधान रहने की आवश्यकता है। बात यह है कि कुछ लोग रामानुज-परंपरा से रामानंदजी की परंपरा को बिल्कुल स्वतंत्र और अलग सिद्ध करना चाहते हैं। इसी से रामानंदजी को एक स्वतंत्र आचार्य प्रमाणित करने के लिये उन्होंने उनके नाम पर एक वेदांत भाष्य प्रसिद्ध किया हैं। रामानंदजी समय समय पर विनय और स्तुति के हिंदी पद भी बनाकर गाया करते थे। केवल दो-तीन पदों का पता अब तक लगा है। एक पद तो यह हैं जो हनुमान् जी की स्तुति में हैं––

आरति कीजै हनुमान चला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल-भर ते महि काँपे। रोग सोग जाकी सिमा न चाँपै॥
अंजनी-सुत महाबल-दायक। साधु संत पर सदा सहायक॥
बाएँ भुजा सा असुर सँहारी। दहिन भुजा सब संत उबारी॥
लछिमन वरति में मूर्छि परयो। पैठि पताल जमकातर तरओ॥