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रामभक्ति-शाखा

झाड़-फूँक के काम के ऐसे ऐसे स्तोत्र भी रामानंदजी के गले मढ़े गए है! स्तोत्र के आरंभ में जो 'संध्या' शब्द है, नाथपंथ से उसका पारिभाषिक अर्थ है––'सुपुम्ना नाड़ी की संधि में प्राण का जाना।' इसी प्रकार 'निरंजन' भी गोरखपंथ मे उस ब्रह्म के लिये एक रूढ़ शब्द है जिसकी स्थिति वहाँ मानी गई है जहाँ नाद और बिंदु दोनों का लय हो जाता है––

नादकोटि सहस्राणि बिन्दुकोटि शतानि च। सर्वे तत्र लयं यान्ति यत्र देवो निरजनः॥

'नाद' और 'बिंदु' क्या है, यह नाथपंथ के प्रसंग में दिखाया जा चुका है[१]

सिखों के 'ग्रंथ-साहब' में भी निर्गुण उपासना के दो पद रामानंद के नाम के मिलते हैं। एक यह है––

कहाँ जाइए हो घरि लागो रंग। मेरो चंचल मन भयो अपंग॥
जहाँ जाइए तहँ जल पषान। पूरि रहे हरि सब समान॥
वेद स्मृति सब मेल्हे जोइ। जहाँ जाइए हरि इहाँ न होई॥
एक बार मन भयो उमंग। घसि चोवा चंदन वारि अंग॥
पूजत चाली ठाइँ ठाइँ। सो ब्रह्म बतायो गुरु आप माइँ॥
सतगुर मैं बलिहारी तोर। सकल विकल भ्रम जारे मोर॥
रामानंद रमै एक ब्रह्म। गुरु कै एक सबद काटै कोटि क्रम्म॥

इस उद्वरण से स्पष्ट है कि ग्रंथ-साहब में उद्धत दोनों पद भी वैष्णव भक्त रामानंदजी के नहीं है; और किसी रामानंद के हों तो हो सकते हैं।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वास्तव में रामानंदजी के केवल दो संस्कृत ग्रंथ ही आज तक मिले है। 'वैष्णव-मताब्जभास्कर' में रामानंदजी के शिष्य सुरसुरानंद ने नौ प्रश्न किए हैं जिनके उत्तर में रामतारकं मंत्र की विस्तृत व्याख्या, तत्वोपदेश, अहिंसा का महत्त्व, प्रपत्ति, वैष्णवों की दिनचर्या, षोडशोपचार पूजन इत्यादि विषय हैं।

अर्चावतारों के चार भेद––स्वयंव्यक्त, दैव, सैद्व और मानुष––करके कहा गया है कि वे प्रशस्त देशों (अयोध्या, मथुरा आदि) में श्री सहित सदा


  1. देखो पृष्ठ १६––१७।