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हिंदी-साहित्य का इतिहास

निवास करते हैं। जातिभेद, क्रिया-कलाप आदि की अपेक्षा न करने वाले भगवान् की शरण में सबको जाना चाहिए––

प्राप्तु परा सिद्धिमकिंचनो जनो-द्विजादिच्छंछरणं हरिं ब्रजेत्।
परम दयालु स्वगुणानपेक्षितक्रियाकलापादिकजातिभेदम्॥


गोस्वामी तुलसीदासजी––यद्यपि स्वामी रामानंदजी की शिष्य परंपरा के द्वारा देश के बड़े भाग में रामभक्ति की पुष्टि निरंतर होती आ रही थी। और भक्त लोग फुटकल पदो में राम की महिमा गाते आ रहे थे पर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इस भक्ति का परमोज्ज्वल प्रकाश विक्रम की १७वी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी द्वारा स्फुरित हुआ। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने भाषा-काव्य की सारी प्रचलित पद्धतियों के बीच अपना चमत्कार दिखाया। सारांश यह कि रामभक्ति का वह परम विशद साहित्यिक संदर्भ इन्ही भक्त-शिरोमणि द्वारा संघटित हुआ जिससे हिंदी-काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरंभ हुआ।

'शिवसिंह-सरोज' में गोस्वामीजी के एक शिष्य बेनीमाधवदास कृत 'गोसाई चरित्र' का उल्लेख है। इस ग्रंथ का कहीं पता न था। पर कुछ दिन हुए सहसा यह अयोध्या से निकल पड़ा। अयोध्या में एक अत्यंत निपुण दल है जो लुप्त पुस्तकों और रचनाओं को समय समय पर प्रकट करता रहता है। कभी नंददास कृत तुलसी की वंदना का पद प्रकट होता है जिसमें नंददास कहते है––

श्रीमत्तुलसीदास स्वगुरु भ्राता-पद बंदे।
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नंददास के हृदय-नयन को खोलेउ सोई॥

कभी सूरदासजी द्वारा तुलसीदास जी की स्तुति का यह पद प्रकाशित होता है––

धन्य भाग्य मम संत सिरोमनि चरन-कमल तकि आयउँ।