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रामभक्ति-शाखा

दया-दृष्टि तें मम दिसि हेरेउ, तत्त्व-स्वरूप लखायो।
कर्म उपासन-ज्ञान-जनित भ्रम संसय-मूल नसायो॥

[१]

इस पद के अनुसार सूरदास का 'कर्म-उपासन-ज्ञान-जनित भ्रम' बल्लभाचार्यजी ने नहीं, तुलसीदासजी ने दूर किया था। सूरदासजी तुलसीदासजी से अवस्था में बहुत बड़े थे और उनसे पहले प्रसिद्ध भक्त हो गए थे, यह सब लोग जानते है।

ये दोनों पद 'गोसाई चरित्र' के मेल में है, अतः मैं इन सब का उद्गम एक ही समझता हूँ। 'गोसाई चरित्र' में वर्णित बहुत सी बाते इतिहास के सर्वथा विरुद्ध पड़ती है, यह बा० माताप्रसाद गुप्त अपने कई लेखों में दिखा चुके हैं। रामानंदजी की शिष्य-परंपरा के अनुसार देखें तो भी तुलसीदास के गुरु का नाम नरहर्यानंद और नरहर्यानंद के गुरु का नाम अनंतानद (प्रिय शिष्य अनंतानंद हते। नरहर्यानंद सुनाम छते) असंगत ठहरता है। अनतानंद और नरहर्यानंद दोनो रामानंदजी के बारह शिष्यों में थे। नरहरिदास को अलबत कुछ लोग अनंतानंद की शिष्य कहते हैं, पर भक्तमाल के अनुसार अनंतानंद के शिष्य श्रीरंग के शिष्य थे। गिरनार में योगाभ्यासी सिद्ध रहा करते हैं, 'तपसी शाखा' की यह बात भी गोसाई-चरित्र में आ गई है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि तिथि, बार आदि ज्योतिष की गणना से बिलकुल ठीक मिलाकर तथा तुलसी के संबंध में चली आती हुई सारी जन-श्रुतियों का समन्वय करके सावधानी के साथ इसकी रचना हुई है, पर एक ऐसी पदावली इसके भीतर चमक रही है जो इसे बिल्कुल आजकल की रचना घोषित कर रही हैं। यह है 'सत्यं, शिवं, सुंदरम्'। देखिए––

देखिन तिरषित दृष्टि तें सब जने, कीन्ही सही संकरम् ।
दिव्याषर सों लिख्यो, पढैं धुनि सुने, सत्यं शिवं सुंदरम्॥


  1. ये दोनों पंक्तियाँ सूरदासजी के इस पद से खींच ली गई है––

    कर्म जोग पुनि ज्ञान-उपासन सब ही भ्रम भरमायो‌।
    श्री बल्लभ गुरु तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो॥

    (सूरसागर-सारावली)