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हिंदी-साहित्य का इतिहास

अपभ्रंश काल से चली आती थी, और (ड) ईश्वरदास की दोहे-चौपाई वाली प्रबंध-पद्धति। इस प्रकार काव्य-भाषा के दो रूप और रचना की पाँच मुख्य शैलियाँ साहित्यक्षेत्र में गोस्वामीजी को मिलीं। तुलसीदासजी के रचना-विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्यक्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतांवली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पदमावत में मिलती है। वही जानकीमंगल, पार्वतीमगंल, बरवारामायण और रामललानहछू में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।

प्रचलित-रचना-शैलियों पर भी उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं।

(क) वीर-गाथा काल की छप्पय पद्धति पर इनकी रचना थोड़ी है, पर इनकी निपुणता पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है; जैसे––

कतहुँ विटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत। कतहुँ बाजि सों बाजि मर्दि गजराज करक्खत॥
चरन चोट चटकन चकोट अरि उर सिर बज्जत। बिकट कटक विद्दरत वीर वारिद जिमि गज्जत॥

लंगूर लपेटत पटकि भट,'जयति राम जय' उच्चरत।
तुलसीदास पवननंदन अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत॥

डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्वै समुद्रसर। व्याल बधिर तेहिं काल, बिकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयद लरखरत, परत दसकंठ मुक्ख भर। सुरविमान हिमभानु, संघटित होत परस्पर॥

चौके विरंचि सकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्यंड खंड कियो चंढ धुनि,जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥

(ख) विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति पर इन्होंने बहुत विस्तृत और बड़ी सुंदर रचना की है। सूरदासजी की रचना में संस्कृत की 'कोमल कांत पदावली' और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है जो गोस्वामीजी की