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हिंदी-साहित्य का इतिहास

भाव ही प्रगट होता है। राम की नख-शिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत से पदो में लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे, इसका ख्याल गोस्वामीजी को न रहा।

(ग) गंग आदि भाटों की कवित्त-सवैया-पद्धति पर भी इसी प्रकार सारा रामचरित गोस्वामीजी कह गए है जिसमें नाना रसों का सन्निवेश अत्यंत विशद रूप में और अत्यंत पुष्ट और स्वच्छ भाषा में मिलता है। नाना रसमयी रामकथा तुलसीदासजी ने अनेक प्रकार की रचनाओं में कही है। कवितावली में रसानुकूल शब्द-योजना बड़ी सुंदर है। जो तुलसीदासजी ऐसी कोमल भाषा का व्यवहार करते है––

राम को रूप निहारत जानकि, कंकन के नग की परिछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही, पल डारतिं नाहीं॥



गोरो गरूर गुमान भरो यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको?



जल को गए लक्खन, है लरिको, परिखौं, पिय, छाँह घरीक ह्वै ठाढें।
पोंछि पसेउ वयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि डाढें॥

वे ही वीर और भयानक के प्रसंग में ऐसी शब्दावली का व्यवहार करते है––

प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड वीर,
धाए जातुधान, हनुमान लियो घेरिकै।
महाबल पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट,
जहाँ तहाँ पटके लँगूर फेरि फेरिकै॥
मारे लात, तोरे गात, भागे जात, हाहा खात,
कहैं तुलसीस "राखि राम की सौं" टेरिकै।
ठहर ठहर परे, कहरि कहरि उठै,
हहरि हहरि हर, सिद्ध हँसे हेरिकै॥