पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१३९
रामभक्ति-शाखा

के कुछ चलते शब्दों को लेकर, बिना उनका तात्पर्य समझे, यों ही 'ज्ञानी' बने हुए, मूर्ख जनता को लौकिक कर्त्तव्यों से विचलित करना चाहते है और मूर्खता-मिश्रित अहंकार की वृद्वि कर रहे है। इसी दशा को लक्ष्य करके उन्होंने इस प्रकार के वचन कहे हैं––

श्रुति सम्मत हरिभक्तिपथ सजुत विरति विवेक।
नहि परिहरहिं विमोहबस, कल्पहिं पंथ अनेक॥
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुरान॥
बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि।
जानहि ब्रह्म सो बिप्रवर, आँखि देखावहिं डाटि॥

इसी प्रकार योगमार्ग से भक्तिमार्ग का पार्थक्य गोस्वामीजी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में बताया है। योगमार्ग ईश्वर को अंतस्थ मानकर अनेक प्रकार की अतस्साधनाओं में प्रवृत्त करता हैं। सगुण भक्तिमार्गी ईश्वर को भीतर और बाहर सर्वत्र मानकर उनकी कला का दर्शन खुले हुए व्यक्त जगत् के बीच करता है। वह ईश्वर को केवल मनुष्य के क्षुद्र घट के भीतर ही नहीं मानता। इसी से गोस्वामीजी कहते हैं––

अंतर्जामिहु तें बड़ बाहिरजामी हैं राम, जो नाम लिए तें।
पैज परे प्रहलादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिंए तें॥

'घट के भीतर' कहने से गुह्य या रहस्य की धारणा फैलती है जो भक्ति के सीधे स्वाभाविक मार्ग में बाधा डालती है। घट के भीतर साक्षात्कार करने की बात कहने वाले प्रायः अपने को गूढ रहस्यदर्शी प्रकट करने के लिये सीधी सादी बात को भी रूपक बाँधकर-और टेढ़ी पहेली बनाकर कहा करते हैं। पर इस प्रकार के दुराव-छिपाव की प्रवृत्ति को गोस्वामीजी भक्ति का विरोधी मानते है। सरलता या सीधेपन को वे भक्ति का नित्य लक्षण कहते हैं––मन की सरलता, वचन की सरलता और कर्म की सरलता, तीनों को––

सूबे मन, सूधे बचन, सूधी सब करतूति। तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुवर-प्रेम-प्रसूति॥

वे भक्ति के मार्ग को ऐसा नहीं मानते जिसे 'लखै कोइ बिरलै'। वे उसे ऐसा