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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इसी प्रकार रामचरितमानस के उत्तरकांड में उन्होंने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को कहीं अधिक सुसाध्य और आशुफलदायिनी कहा है।

रचना-कौशल, प्रबंध-पटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरित मानस में मिलता है। पहली बात जिसपर ध्यान जाता है, वह हैं। कथा-काव्य के सब अवयवो का उचित समीकरण। कथा-काव्य या प्रबंध-काव्य के भीतर इतिवृत्त, वस्तु-व्यापार-वर्णन, भावव्यंजना और संवाद, ये अवयव होते है। न तो अयोध्यापुरी की शोभा, बाललीला, नखशिख, जनक की वाटिका, अभिषेकोत्सव इत्यादि के वर्णन बहुत लंबे होने पाए है, न पात्रों के संवाद, न प्रेम शोक आदि भावों की व्यंजना। इतिवृत्त की शृंखला भी कहीं से टूटती नहीं है।

दूसरी बात है कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान। अधिक विस्तार हमें ऐसे ही प्रसंगों का मिलता है जो मनुष्य मात्र के हृदय को स्पर्श करनेवाले है––जैसे, जनक की वाटिका में राम-सीता का परस्पर दर्शन, रामवनगमन, दशरथमरण, भरत की आत्मग्लानि, वन के मार्ग में स्त्री-पुरुषो की सहानुभूति, युद्ध, लक्ष्मण को शक्ति लगना, इत्यादि।

तीसरी बात है प्रसंगानुकूल भाषा। रसों के अनुकूल कोमल-कठोर पदों की योजना तो निर्दिष्ट रूढ़ि ही है। उसके अतिरिक्त गोस्वामीजी ने इस बात का भी ध्यान रखा है कि किस स्थल पर विद्वानों या शिक्षितों की संस्कृत-मिश्रित भाषा रखनी चाहिए और किस स्थल पर ठेठ बोली। घरेलू प्रसंग समझकर कैकेयी और मंथरा के संवाद में उन्होले ठेठ बोली और स्त्रियों में विशेष चलते प्रयोगों का व्यवहार किया है। अनुप्रास की ओर प्रवृत्ति तो सब रचनाओं में स्पष्ट लक्षित होती है।

चौथी बात है शृंगार रस का शिष्ट-मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।

जिस धूमधाम से 'मानस' की प्रस्तावना चली हैं उसे देखते ही ग्रंथ के महत्त्व का आभास मिल जाता है। उससे साफ झलकता है कि तुलसीदासजी अपने ही तक दृष्टि रखनेवाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर