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हिंदी-साहित्य का इतिहास

बराबर गोवर्द्धन पर्वत पर ही मंदिर की सेवा में रहा करते थे, इसका स्पष्ट आभास 'सूरसारावली' के भीतर मौजूद है। तुलसीदास के प्रसंग में हम कह आए हैं कि भक्त लोग कभी कभी किसी ढंग से अपने को अपने इष्टदेव की कथा के भीतर डालकर उनके चरणो तक अपने पहुँचने की भावना करते है[१]। तुलसी ने तो अपने को कुछ प्रच्छन्न रूप में पहुँचाया है, पर सूर ने प्रकट रूप में। कृष्ण-जन्म के उपरांत नंद के घर बराबर आनंदोत्सव हो रहे हैं। उसी बीच एक ढाढी आकर कहता है––

नंद जू मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन ते आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो, मैं सुनिकै अति आतुर उठि धायो॥
XXX
जब तुम मदन मोहन करि टेरी, यह सुनि कै घर जाउँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढी, सूरदास मेरो नाउँ॥

वल्लभाचार्यजी के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ के सामने गोवर्द्धन की तलहटी के पारसोंली ग्राम में सूरदास की मृत्यु हुई, इसका पता भी उक्त वार्ता से लगता है। गोसाई विट्ठलनाथ की मृत्यु सं० १६४२ में हुई। इसके कितने पहले सूरदास को परलोकवास हुआ, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

'सूरसागर' समाप्त करने पर सूर ने जो 'सूरसागर-सारावली' लिखी है उसमें अपनी अवस्था ६७ वर्ष की कही है––

गुरु-परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन।

तात्पर्य यह कि ६७ वर्ष के कुछ पहले वे 'सूरसागर' समाप्त कर चुके थे। सूरसागर समाप्त होने के थोड़ा ही पीछे उन्होंने 'सारावली' लिखी होगी। एक और ग्रंथ सूरदास का 'साहित्य लहरी' है, जिसमें अलंकारों और नायिका-भेदों के उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले कूट पद है। इसका रचनाकाल सूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है––

मुनि सुनि रसन के रस लेख।
दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संबत पेख।


  1. देखो पृ० १३१।