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कृष्णभक्ति-शाखा

इसके अनुसार संवत् १६०७ में 'साहित्य-लहरी' समाप्त हुई। यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य-क्रीड़ा का यह ग्रंथ 'सूरसागर' से छुट्टी पाकर ही सूर ने संकलित किया होगा। उसके दो वर्ष पहले यदि 'सूरसारावली' की रचना हुई, तो कह सकते हैं संवत् १६०५ में सूरदासजी ६७ वर्ष के थे। अब यदि उनकी आयु ८० या ८२ वर्ष की माने तो उनका जन्मकाल सं० १५४० के आसपास तथा मृत्युकाल सं० १६२० के आसपास ही अनुमित होता है‌।

'साहित्य-लहरी' के अंत में एक पद है जिसमे सूर अपनी वंशपरंपरा देते हैं। उस पद के अनुसार सूर पृथ्वीराज के कवि चंदबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। चदंकवि के कुल में हरीचंद हुए जिनके सात पुत्रों में सबसे छोटे सूरजदास या सूरदास थे[१]। शेष ६ भाई जब मुसलमानों से युद्ध करते हुए मारे गए तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे। एक दिन वे कुएँ में गिर पड़े और ६ दिन उसी में पड़े रहे। सातवें दिन कृष्ण भगवान् उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें दृष्टि देकर अपना दर्शन दिया। भगवान् ने कहा कि दक्षिण के एक प्रबल ब्राह्मण-कुल द्वारा शत्रुओं का नाश होगा और तू सब विद्याओं में निपुण होगा। इसपर सूरदास ने वर माँगा कि जिन आँखो से मैंने आपका दर्शन किया उनसे अब और कुछ न देखूँ और सदा आपका भजन करूँ। कुएँ से जब भगवान् ने उन्हें बाहर निकाला तब वे ज्यों के त्यों अंधे हो गए और ब्रज में आकर भजन करने लगे। वहाँ गोसाईजी ने उन्हें 'अष्ट-छाप' में लिया।

हमारा अनुमान है कि 'साहित्य-लहरी' में यह पद पीछे किसी भाट के द्वारा जोड़ा गया है। यह पंक्ति ही––

'प्रबल दच्छिन विप्रकुल तें सत्रु ह्वैहै नास।'

इसे सूर के बहुत पीछे की रचना बता रही है। 'प्रबल दच्छिन विप्रकुल' से साफ पेशवाओं की ओर संकेत है। इसे खींचकर अध्यात्म-पक्ष की ओर मोड़ने का प्रयत्न व्यर्थ है।


  1. देखो पृ० ४५ पर चंद का वंशवृक्ष।

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