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कृष्णभक्ति-शाखा

मेरे नैना बिरह की बेल बई।
सींचत नैन-नीर के सजनी! मूल पतार गई।
बिगसति लता सुभाय आपने छाया सघन भई।
अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब तन पसरि छई।

आँख तो आँख, कृष्ण की मुरली तक में प्रेम के प्रभाव से गोपियों को ऐसी सजीवता दिखाई पड़ती है कि वे अपनी सारी प्रगल्भता उसे कोसने में खर्च कर देती हैं––

मुरली तऊ गोपालहिं भवति।
सुन री सखी! जदपि नँदनंदहिं नानी भाँति नचावति॥
राखति एक पायँ ठाढें करि, अति अधिकार जनावति।
आपुनि पीढ़ि अधर-सज्जा पर करपल्लव सौं पद पलुटावतिं।
भ्रकुटी कुटिल कोप नासापुट हम पर कोपि कँपावति॥

कालिंदी के कूल पर शरत् की चाँदनी में होने वाले रास की शोभा का क्या कहना है, जिसे देखने के लिये सारे देवता आकर इकट्ठे हो जाते थे। सूर ने एक न्यारे प्रेमलोक की आंनद-छटा अपने बंद नेत्रों से देखी है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों का जो विरहसागर उमड़ा है उसमें मग्न होने पर तो पाठको को वार-पार नही मिलता। वियोग की जितने प्रकार की दशाएँ हो सकती हैं सबका समावेश उसके भीतर है। कभी तो गोपियों को संध्या होने पर यह स्मरण आता है––

एहि-बेरियाँ बन ते चलि आवते।
दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि बार बार बजावते॥

कभी वे अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में न होने के कारण वृंदावन के हरे-भरे पेड़ों को कोसती हैं––

मधुबन! तुम कत रहते हरे?
बिरह-बियोग श्यामसुंदर के ठाढे क्यों न जरे?
तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको, फिर सिर पुहुप धरे॥