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कृष्णभक्ति-शाखा

कंचन मनि मरकत रस ओपी ।
नंदसुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी ॥
मनहुँ विधाता गिरिधर पिय हित सुरत-धुजा सुख रोपी ।
बदन कांति कै सुनु री भामिनी ! सबन चंद-श्री लोपी ॥
प्राननाथ के चित चोरन को भौंह भुजंगम कोपी ।
कृष्णदास स्वामी बस कीन्हे, प्रेमपुंज की चोपी ॥

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मो मन गिरिधर-छवि पै अटक्यो ।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गडि ठटक्यो ॥
सजल स्याम-घन-बरन लीन ह्वै, फिरि चित अनत न भटक्यो ।
कृष्णदास किए प्रान निछावर, यह तन जग-सिर पटक्यो ॥

कहते हैं कि इसी अंतिम पद को गाकर कृष्णदासजी ने शरीर छोड़ा था । इनका कविता-काल संवत् १६०० के आगे पीछे माना जा सकता है ।

( ४ ) परमानंददास---ये भी वल्लभाचार्य्यजी के शिष्य और अष्टछाप में थे । ये संवत् १६०६ के आसपास वर्त्तमान थे । इनका निवासस्थान कन्नौज था । इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते है । ये अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ी ही सरस कविता करते थे । कहते हैं, कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्य्यजी कई दिनों तक तन बदन की सुध भूले रहे हैं इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुंह से प्रायः सुनने में आते हैं। इनके ८३५ पद ‘परमानंद-सागर' में हैं । दो पद देखिए---

कहा करौं बैकुंठहि जाय ?

जहँ नहि नंद, जहां न जसोदा, नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय ।
जई नहिं जल जमुना को निर्मल और नहीं कदमन की छायँ ।
परमानंद प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय ॥

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राधे जू हारावलि टूटी ।

उरज कमलदल माल मरगजी, बाम कपोल अलक लट छूटी ॥

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