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कृष्णभक्ति-शाखा


रचना कर गए हैं। अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंशजी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते हैं । इनका रचना-काल संवत् १६०० से संवत् १६४० तक माना जा सकता है । 'हित चौरासी' के अतिरिक्त इनकी फुटकल बानी भी मिलती है जिसमें सिद्धांत-संबंधी पद्य है। इनके 'हित चौरासी' पर लोकनाथ कवि ने एक टीका लिखी है । वृंदावनदास ने इनकी स्तुति और वंदना में 'हितजी की सहस्रनामावली' और चतुर्भुजदास ने 'हितजू को मंगल' लिखा है । इसी प्रकार हित परमानंदजी और ब्रजजीवनदास ने इनकी जन्म बधाइयाँ लिखी है । हितहरिवंश जी की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है जिनसे इनकी वर्णन-प्रचुरता का परिचय मिलेगा---

( सिद्धांत-संबंधी कुछ फुटकल पदों से )
रहो कोउ काहू मनहिं दिए ।
मेरे प्राननाथ श्री स्यामा सपथ करौं तिन छिए ॥
जो अवतार-कदंब भजत हैं धरि दृढ़ ब्रत जु हिए ।
तेऊ उमगि तजत मर्यादा बन बिहार रस पिए ॥
खोए रतन फिरत जो घर घर कौन काज इमि जिए ?
हितहरिबंस अनत सच नाहीं बिन या रसहि पिए ॥
              ( हित-चौरासी से )
ब्रज नव तरुनि कदंब मुकुटमनि स्यामा आजु बनी ।
नख सिख लौं अँग अँग - माधुरी मोहे श्याम धनी ॥
यों राजति कबरी गूथित कच कनक कज-बदनी ।
चिकुर चंद्रिकन बीच अधर बिधु मानौ - ग्रसित फनी ॥
सौभग रस सिर स्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी ।
भ्रुकुटि काम-कोदंड, नैन शर, कज्ज्ल-रेख अनी ॥
भाल तिलक, ताटक गंड पर, नासा जलज मनी ।
दसन, कुंद, सरसाधर पल्लव, पीतम-मन-समनी ॥
हितहरिबंस प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विश्व-दुरित-दवनी ॥
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