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हिंदी-साहित्य का इतिहास

फरहरात पट पीत नील के, अंचल चंचल चाल।
मनहूँ परस्पर उमगि ध्यान छवि प्रकट भई तिहि काल॥
सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी भाल।
जन प्रिय-मुकुट-बरहि-भ्रम तहँ व्याल विकल विहाल॥
मल्लीमाल प्रिया के उर की, पिय तुलसीदल माल।
जनु सुरसरि रवितनया मिलिकै सोभित श्रेनि-मराल॥
स्यामल गौर परस्पर प्रति छवि, सोभा बिसद विशाल।
निरखि गदाधर रसिककुँवरि-मन पर्यों सुरस-जंजाल॥


(११) मीराबाई––ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री थीं। इनका जन्म संवत् १५७३ में चोकडी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा-कुमार भोजराजजी के साथ हुआ था। ये आरंभ ही से कृष्णभक्ति में लीन रहा करती थीं। विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति-का परलोकवास हो गया। ये प्रायः मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान् की मूर्त्ति के सामने आनंद-मग्न होकर नाचती और गाती थीं। कहते हैं कि इनके इस राजकुल-विरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर भगवत्कृपा से विष का कोई प्रभाव इनपर न हुआ। घरवालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम घूमकर भजन सुनाया करती थीं। जहाँ जातीं वहाँ इनका देवियों का सा समान होता। ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी को यह पद लिखकर भेजा था––

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषन दूषन-हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहुं, अब हरहु सोक-समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरु भजन करत मोहिं देत कलेस महाई॥
मेरे मात-पिता के सम हौ, हरिभक्तह्न सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सौ लिखिए समझाई॥