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हिंदी-साहित्य का इतिहास

मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल-कोमल विविध-ज्वाला-हरन॥
जो चरन प्रहलाद परसे इंद्र-पदवी-हरन।
जिन वरल ध्रुव अटल कीन्हों राखि अपनी सरन॥
जिन चरन ब्रह्मांड भेंट्यों नखसिखौ श्री भरन।
जिन चरन प्रभु परस लीन्हें तरी गौतम-घरनि॥
जिन चरन धारयों गोवरधन गरब-मधवा-हरन।
दासि मीरा लाल गिरधर अगम तारन तरन॥

(१२) स्वामी हरिदास––ये महात्मा वृंदावन में निंबार्कमतांतर्गत टट्टी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत-कला-कोविंद माने जाते थे। कविता-काल १६०० से १६१७ ठहरता है। प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरुवत् संमानकरते थे। यह प्रसिद्ध है, कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिये गया था। कहते है कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जान-बूझकर गाने में कुछ भूल कर दी। इस पर स्वामी हरिदास ने उसी गान को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही पर इन्होने स्वीकृत न की। इनका जन्म-संवत् आदि कुछ ज्ञात नहीं, पर इतना निश्चित है कि ये सनाढ्य ब्राह्मण थे जैसा कि सहचरिसरनदासजी ने, जो इनकी शिष्यपरंपरा में थे, लिखा है। वृंदावन से उठकर स्वामी हरिदास जी कुछ दिन निधुवन में रहे थे। इनके पद कठिन राग-रागिनियों में गाने योग्य है, पढ़ने में कुछ कुछ उबड़-खाबड लगते है। पद-विन्यास भी और कवियों के समान सर्वत्र मधुर और कोमल नहीं है, पर भाव उत्कृष्ट हैं। इनके पदों के तीन-चार संग्रह 'हरिदासजी के ग्रंथ', 'स्वामी हरिदासजी के पद', 'हरिदासजी की बानी' आदि नामों से मिलते है। एक पद देखिए––

ज्योंही ज्योंही तुम राखत हौं, त्योंही त्योंही रहियत हौं, हे हरि!
और अपरचै पाय धरौं सुतौं कहौं कौन के पैंड भरि॥