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हिंदी-साहित्य का इतिहास

उपमा को घन दामिनि नाहीं, कँदरप कोटि वारने करिया।
सूर मदनमोहन बलि जोरी नँदनंदन वृषभानु दुलरिया॥

(१४) श्री भट्ट––ये निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान् केशव काश्मीरी के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म संवत् १५९५ में अनुमान किया जाता हैं अतः इनका कविता-काल संवत् १६२५, या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी-सादी और चलती भाषा में है। पद भी प्रायः छोटे-छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका १०० पदो का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक और छोटी सी पुस्तक 'आदि बानी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उसी पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान् की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे––

भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना॥

कहते हैं कि राधाकष्ण इसी रूप में इन्हें दिखाई पड़ गए और इन्होंने पद इस प्रकार पूरा किया––

स्यामा स्याम कुंजतर ठाढें, जतन कियो कछु मैं ना।
श्रीभट उमडिं घटा चहुँ दिसि से घिरि आईं जल-सेना॥

इनके 'युगल शतक' से दो पद उद्धृत किए जाते हैं––

ब्रजभूमि मोहनी मैं जानी।
मोहन कुंज, मोहन वृंदावन, मोहन जमुना-पानी॥
मोहन नारि सकल गोकुल की बोलति अमेरित बानी।
श्रीभट के प्रभु मोहन नागर, मोहनि राधा रानी॥


बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद।
गोर-बदनि वृषभानु-नंदिनी, स्यामबरन नँदनंद॥
गोलक रहे लुभाय रूप में निरखत आनँदकंद।
जय श्रीभट्ट प्रेमरस-बंधन, क्यों छूटै दृढ़ फंद॥