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हिंदी-साहित्य का इतिहास

वृंदावन-सत, सिंगार-सत, रस-रत्नावली, नेह-मंजरी, रहस्य-मंजरी, सुख-मंजरी, रति-मंजरी, वन-विहार, रंग-विहार, रस-विहार, आनंद-दसा-विनोद, रंग-विनोद, नृत्य-विलास, रंग-हुलास, मान-रस-लीला, रहसलता, प्रेमलता, प्रेमावली, भजन-कुंडलिया, भक्त-नामावली, मन-सिंगार, भजन-सत, प्रीती-चौवनी, रस-मुक्तावली, वामन वृहत्-पुराण की भाषा, सभा-मंडली, रसानंदलीला, सिद्धात-विचार, रस-हीरावली, हित-सिंगार-लीला, ब्रजलीला, आनंद-लता, अनुराग-लता, जीवदशा, वैद्यलीला, दान-लीला, ब्याहलो।

नाभाजी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने 'भक्तनामावली' लिखी है। जिससे अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है। इनकी कई पुस्तकों में संवत् दिए है; जैसे––सभा-मंडली १६८१, वृंदावन-सत १६८६ और रसमंजरी १६९८। अतः इनका रचनाकाल संवत् १६६० से १७०० तक माना जा सकता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते है––

('सिंगार-सत' से)


रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के,
अंग अंग भौरन की अति गहराई है।
नैनन को प्रतिबिंब पन्यो हैं कपोलन में,
तेई भए मीन तहाँ, ऐसो उर आई है॥
अरुन कमल मुसुकान मानो फुबि रही,
थिरकन बेसरि के मोती की सुहाई है।
भयो है मुदित सखी लाल को मराल-मन,
जीवन-जुगल ध्रुव एक ठाँव पाई है॥

('नेहमंजरी' से)


प्रेम बात कछु कहि नहिं जाई। उलटी चाल तहाँ सब भाई॥
प्रेम बात सुनि बौरो होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई॥
तन मन प्रान तिही छिन हारै। भली बुरी कछुवै न विचारै॥
ऐसों प्रेम उपजिहै जनहीं। हित ध्रुव बात बनैगी तबहीं॥