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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

उनका सम्मान होने लगा। कवियों के सम्मान के साथ साथ कविता का सम्मान भी यहाँ तक बढ़ा कि अब्दुर्रहीम खानखानाँ ऐसे उच्चपदस्थ सरदार क्या बादशाह तक ब्रजभाषा की ऐसी कविता करने लगे––

जाको जस है जगत में, जगत सराहै जाहि।
ताको जीवन सफल है, कहत अकबर साहि॥

साहि अकबर एक समै चले कान्ह विनोद बिलोकन बालहि।
आहट तें अबला निरख्यौ, चकि चौंकि चला करि आतुर चालहि॥
त्यों बलि बेनी सुधारि धरी सु भई छबि यों ललना अरु लालहि।
चपक चारु कमान चढ़ावत काम ज्यों हाथ लिए अहि-बालहि॥

नरहरि और गंग ऐसे सुकवि और तानसेन ऐसे गायक अकबरी दरबार की शोभा बढ़ाते थे।

यह अनुकूल परिस्थिति हिंदी-काव्य को अग्रसर करने में अवश्य सहायक हुई। वीर, शृङ्गार और नीति की कविताओं के आविर्भाव के लिये विस्तृत क्षेत्र फिर खुल गए। जैसा आरंभकाल में दिखाया जा चुका है, फुटकल कविताएँ अधिकतर इन्हीं विषयों को लेकर छप्पय, कवित्त-सवैयों और दोहों में हुआ करती थीं। मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त प्रबंध-काव्य-परंपरा ने भी जोर पकड़ा और अनेक अच्छे आख्यान-काव्य भी इस काल में लिखे गए।। खेद है कि नाटकों की रचना की ओर ध्यान नहीं गया। हृदयराम के भाषा हनुमन्नाटक को नाटक नहीं कह सकते। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि व्यासजी (संवत् १६२० के आसपास) के देव नामक एक शिष्य का रचा "देवमायाप्रपंचनाटक" भी नाटक नहीं, ज्ञानवार्ता है।

इसमें संदेह नहीं कि अकबर के राजत्वकाल में एक ओर तो साहित्य की चली आती हुई परंपरा को प्रोत्साहन मिला; दूसरी ओर भक्त कवियों की दिव्यवाणी का स्रोत उमड़ चला। इन दोनों की सम्मिलित विभूति से अकबर का राजत्वकाल जगमगा उठा और साहित्य के इतिहास में उसका एक विशेष स्थान हुआ। जिस काल में सूर और तुलसी ऐसे भक्ति के अवतार तथा नरहरि, गंग