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हिंदी-साहित्य का इतिहास

हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति।
बहु सुंदरि पद्मिनी पुरुष न चहै, न करै रति॥

खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो।
खानान खान बैरम-सुवन, जवहिं क्रोध करि तँग कस्यो॥

सारांश यह कि गंग अपने समय के प्रधान कवि माने जाते थे। इनकी कोई पुस्तक अभी नहीं मिली है। पुराने संग्रह ग्रंथों में इनके बहुत से कवित्त मिलते है। सरस हृदय के अतिरिक्त वाग्वैदग्ध्य भी इनमे प्रचुर मात्रा में था। वीर और शृंगार रस के बहुत ही रमणीय कवित्त इन्होंने कहे है। कुछ अन्योक्तियाँ भी बड़ी मार्मिक हैं। हास्यरस का पुट भी बड़ी निपुणता से ये अपनी रचना में देते थे। घोर अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तु-व्यग्य-पद्धति पर विरहताप का वर्णन भी इन्होंने किया है। उस समय की रुचि को रंजित करने वाले सब गुण इनमें वर्त्तमान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। इनका कविता-काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का अंत मानना चाहिए। रचना के कुछ नमूने देखिए––

बैठी ती सखिन संग, पिय को गवन सुन्यौ,
सुख के समूह में वियोग-आगि भरकी।
गंग कहै त्रिविध सुगंध लै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की॥
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ,
लागत ही औरै गति भई मानसर की।
जलचर चरे औ सेवार जरि छार भयो,
जल जरि गयो, पंक सूख्यो, भूमि दरकी॥


झुकत कृपान मयदान ज्यों दोत भान,
एकन तें एक मानो सुषमा जरद की।
कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे,
फूटी गजघटा धनघटा ज्यों सरद की॥
एते मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं,