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हिंदी-साहित्य का इतिहास


ग्रंथ शृंगाररस-संबंधी लिखा। नरहरि कवि के साथ अकबरी दरबार में जानेवाले करनेस कवि ने 'कर्णाभरण', 'श्रुतिभूषण' और 'भूप-भूषण' नामक तीन ग्रंथ अलंकार-संबंधी लिखे थे पर अब तक किसी कवि ने संस्कृत साहित्य-शास्त्र में निरूपित काव्यांगों का पूरा परिचय नहीं कराया था। यह काम केशवदासजी ने किया।

ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं कहा है-

जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त। भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त॥

अपनी इसी मनोवृत्ति के अनुसार इन्होंने भामह, उद्भट और दंडी आदि प्राचीन आचार्यों का अनुसरण किया जो रस रीति आदि सब कुछ अलंकार के ही अंतर्गत लेते थे; साहित्य-शास्त्र को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत रूप से लाने वाले मम्मट, आनंदवर्द्धनाचार्य और विश्वनाथ का नहीं। अलंकार के सामान्य और विशेष दो भेद करके इन्होंने उसके अंतर्गत वर्णन की प्रणाली ही नहीं, वर्णन के विषय भी ले लिए हैं। 'अलंकार' शब्द का प्रयोग इन्होनें व्यापक अर्थ में किया है। वास्तविक अलंकार इनके विशेष अलंकार ही हैं। अलकारों के लक्षण इन्होंने दंडी के 'काव्यादर्श' से तथा और बहुत सी बातें अमर-रचित 'काव्य-कल्पलता वृत्ति' और केशव मिश्र कृत 'अलंकार शेखर' से ली हैं। पर केशव के ५० या ६० वर्ष पीछे हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की जो परपरा चली वह केशव के मार्ग पर नहीं चली। काव्य के स्वरूप के संबंध में तो वह रस की प्रधानता माननेवाले काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण के पक्ष पर रही और अलंकारो के निरूपण में उसने अधिकतर चंद्रालोक और कुवलयानंद का अनुसरण किया। इसी से केशव के अलंकार-लक्षण हिंदी में प्रचलित अलंकार-लक्षणों से नहीं मिलते। केशव ने अलंकारों पर 'कवि-प्रिया' और रस पर 'रसिकप्रिया' लिखी।

इन ग्रंथों में केशव का अपना विवेचन कहीं नहीं दिखाई पड़ता। सारी सामग्री कई संस्कृत-ग्रंथों से ली हुई मिलती है। नामों में अवश्य कहीं कहीं