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हिंदी-साहित्य का इतिहास

वर्णन ही अलंकारों की भरमार के साथ वे करना जानते थे इसीसे बहुत से वर्णन यों ही, बिना अवसर का विचार किए, वे भरते गए है। वे वर्णन-वर्णन के लिये करते थे, न कि प्रसंग था अवसर की अपेक्षा से। कहीं कहीं तो उन्होंने उचित अनुचित की भी परवा नहीं की है, जैसे––भरत की चित्रकूट-यात्रा के प्रसंग में सेना की तैयारी और तड़क-भड़क का वर्णन। अनेक प्रकार के रूखे सूखे उपदेश भी बीच-बीच में रखना वे नहीं भूलते थे। दान-महिमा, लोभ-निंदा के लिये तो वे प्राय: जगह निकाल लिया करते थे। उपदेशों का समावेश दो एक जगह तो पात्र का बिना विचार किए अत्यत अनुचित और भद्दे रूप में किया गया है, जैसे––वन जाते समय राम का अपनी माता कौशल्या को पातिव्रत का उपदेश।

रामचंद्रिका के लंबे चौड़े वर्णनों को देखने से स्पष्ट लक्षित होता है कि केशव की दृष्टि जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्ष पर न थी। उनका मन राजसी ठाटबाट, तैयारी, नगरों की सजावट, चहल-पहल आदि के वर्णन में ही विशेषतः लगता है।

केशव की रचना को सबसे अधिक विकृत और अरुचिकर करने वाली वस्तु है आलंकारिक चमत्कार की प्रवृत्ति जिसके कारण न तो भावों की प्रकृत व्यंजना के लिये जगह बचती है, न सच्चे हृदयग्राही वस्तु-वर्णन के लिये। पददोष, वाक्यदोष, आदि तो बिना प्रयास जगह-जगह मिल सकते है। कहीं कहीं उपमान भी बहुत हीन और बेमेल है; जैसे, राम की वियोग-दशा के वर्णन में यह वाक्य––

"वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत।"

रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में। इन संवादों में पात्रों के अनुकूल, क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है (जैसे, लक्ष्मण, राम, परशुराम-संवाद तथा लवकुश के प्रसंग के संवाद) तथा वाक्कटुता और राजनीति के दाँव-पेच का आभास भी प्रभावपूर्ण है। उनका रावण-अंगद-संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त और सुंदर है। 'रामचंद्रिका' और 'कविप्रिया' दोनों का रचनाकाल कवि ने १६५८ दिया है; केवल मास में अंतर है।