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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

रसिकप्रिया (सं० १६४८) की रचना प्रौढ़ है। उदाहरणो में चतुराई और कल्पना से काम लिया गया है और पद-विन्यास भी अच्छे हैं। इन उदाहरणों में वाग्वैदग्ध के साथ साथ सरसता भी बहुत कुछ पाई जाती है। 'विज्ञानगीता' संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय नाटक' के ढंग की पुस्तक हैं। 'रतन बावनी' में इन्द्रजीत के बड़े भाई रत्नसिंह की वीरता को छप्पयों में अच्छा वर्णन है। यह वीररस का अच्छा काव्य है।

केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सी सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यागों को विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिये मार्ग खोला। कहते हैं, वे रसिक जीव थे। एक दिन बुड्ढे होने पर किसी कुएँ पर बैठे थे‌। वहाँ स्त्रियों ने 'बाबा' कहकर संबोधन किया। इस पर इनके मुँह से अह दोहा निकला––

केसव केसनि अस करी बैरिहु जस न कराहिँ।
चंन्द्रबदनि मृगलोचनी 'बाबा' कहि-कहि जाहिँ॥

केशवदास की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

जो हौ कहौँ रहिए तौ प्रभुता प्रगट होति,
चलन कहौँ तौ हितहानि नाहिँ सहनो।
'भावै सो करहु' तौ उदासभाव प्राननाथ!
'साथ लै चलहू' कैसे लोकलाज बहनो॥
केसवदास की सौ तुम सुनहु, छबीले लाल,
चलेही बनत जौ पै, नाहीं आज रहनो।
जैसियै सिखाओ सीख तुमहीं सुजान प्रिय,
तुमहिं चलत मोहिं जैसो कछु कहनो॥

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चंचल न हूजै नाथ, अचल न खैंचौ हाथ,
सोवै नेक सारिकाऊ, सुकतौ सोवायो जू।
मंद करौ दीप दुति चंद्रमुख देखियत,
दारिकै दुराय आऊँ द्वार तौ दिखायो जू॥
मृगज मराल बाल बाहिरै बिढारि देऊँ,