पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२१६
हिंदी-साहित्य का इतिहास

खान खानखानाँ तें न, नर नरहरि तें न,
ह्वैहै ना दीवान कोऊ वेडर टुडर तें।
नवौ खंड सात दीप, सात हू समुद्र पार,
हवैहै ना जलालुदीन साह अकबर तें॥


(१५) रहीम (अब्दुर्रहीम खानखानाँ)—ये अकबर बादशाह के अभिभावक प्रसिद्ध मोगल सरदार बैरमखाँ खानखानाँ के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् १६१० मे हुआ। ये संस्कृत, अरबी और फारसी के पूर्ण विद्वान् और हिंदी काव्य के पूर्ण मर्मज्ञ कवि थे। ये दानी और परोपकारी ऐसे थे कि अपने समय के कर्ण माने जाते थे। इनकी दानशीलता हृदय की सच्ची प्रेरणा के रूप में थी, कीर्ति की कामना से उसका कोई संपर्क न था। इनकी सभा विद्वानों और कवियों से सदा भरी रहती थी। गंग कवि को इन्होंने एक बार छत्तीस लाख रुपए दे डाले थे। अकबर के समय में ये प्रधान सेना-नायक और मंत्री थे और अनेक बड़े बड़े युद्धो में भेजे गए थे।

ये जहाँगीर के समय तक वर्तमान रहे। लड़ाई में धोखा देने के अपराध में एक बार जहाँगीर के समय में इनकी सारी जागीर जब्त हो गई और ये कैद कर लिए गए। कैद से छूटने पर इनकी आर्थिक अवस्था कुछ दिनों तक बड़ी हीन रही। पर जिस मनुष्य ने करोड़ों रुपए दान कर दिए, जिसके यहाँ से कोई विमुख न लौटा उसका पीछा याचको से कैसे छूट सकता था, अपनी दरिद्रता का दुःख वास्तव में इन्हें उसी समय होता था जिस समय इनके पास कोई याचक जा पहुँचता और ये उसकी यथेष्ट सहायता नहीं कर सकते थे। अपनी अवस्था के अनुभव की व्यंजना इन्होंने इस दोहे में की है-

तबहीं लौं जीबो भलो दैबौ होय न धीम।
जग में रहिबो कुंचित गति उचित न होय रहीम॥

संपत्ति के समय में जो लोग सदा घेरे रहते हैं विपद आने पर उनमें से अधिकांश किनारा खींचते हैं, इस बात का द्योतक यह दोहा है-

ये रहीम दर दर फिरैं, माँगि मधुकरी खाहिँ।
यारों यारी छाँड़िए, अब रहीम वे नाहिँ॥