पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/२४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२२०
हिंदी-साहित्य का इतिहास

बनियाइनि बनि आरकै, बैठि रुप की हाट।
पेम पेक तन हेरिकै, गरुवै टारति बाट॥
गरब तराजू करति चख, भौंह मोरि मुसकाति।
डाँडी मारति बिरह की, चित चिंता घटि जाति॥


(फुटकल कवित्त आदि से)

बड़न सो जान पहचान कै रहीम कहा,
जो पै करतार ही न सुख देनहार हैं।
सीतहर सूरज सों नेह कियो याहि हेत,
ताहू पै कमल जारि ढारत तुषार है॥
छीरनिधि माहिं धँस्यो संकर के सीस बस्यो,
तऊ ना कलंक नस्यों, ससि में सदा रहें।
बड़ो रिझवार या चकोर दरबार है, पै,
कलानिधि-यार तऊ चाखत अँगार है॥


जाति हुती सखि गोहन में मनमोहन को लखि हीं ललचानो।
नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नंदलाल की रीझिबो जानो॥
जाति भई फिरि कै चितई, तब भाव रहीम यहै उर आनो।
ज्यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो॥


कमलदल नैनन की उनमानि।
बिसरति नाहिं, सखी! मो मन तें मंद मंद मुसकानि।
बसुधा की बस करी मधुरता, सुधापगी बतरानि॥
मढी रहै चित उर बिसाल की मुकुतामल यहरानि।
नृत्य समय पीताँबर हू की फहर फहर फहरानि॥
अनुदिन श्रीवृंदावन ब्रज तें आवत आवन जानि।
अब रहीम चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि॥