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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

(२०) सुंदर––ये ग्वालियर के ब्राह्मण थे और शाहजहाँ के दरबार में कविता सुनाया करते थे। इन्हें बादशाह ने पहिले कविराय की और फिर महा-कविराय की पदवी दी थी। इन्होंने संवत् १६८८ में 'सुंदर-शृंगार' नामक नायिका भेद का एक ग्रंथ लिखा। कवि ने रचना की तिथि इस प्रकार दी है।

संवत् सोरह सै बरस, बीते अठतर सीति। कातिक सुदी सतमी गुरौ, रचै ग्रंथ करि प्रीति॥

इसके अतिरिक्त 'सिंहासन-बत्तीसी' और 'बारहमासा' नाम की इनकी दो पुस्तकें और कहीं जाती है। यमक और अनुप्रास की ओर इनकी कुछ विशेष प्रवृत्ति जान पड़ती है। इनकी रचना शब्द-चमत्कारपूर्ण है। एक उदाहरण दिया जाता है––

काके गए बसन? पलटि आए बसन सु,
मेरो कछु बस न रसन उर लागें हौ।
भौहैं तिरछौहैं कवि सुंदर सुजान सोहैं,
कछु अलसौहैं गैाँ हैं जाके रस पागे हौ॥
परसौं मैं पाय हुते परसौं मैं पाये गहि
परसौं वे पाय निसि जाके अनुरागे हौ।
कौन बनिता के हौ जू कौन बनिता के हौ सु,
कौन बनिता के बनि, ताके संग जागे हौ?

(२१) लालचंद या लक्षोदय––ये मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह (स० १६८५-१७०९) की माता जाववतीजी के प्रधान श्रावक हंसराज के भाई डूँगरसी के पुत्र थे। इन्होंने संवत् १७०० में 'पद्मिनी-चरित्र' नामक एक प्रबंध काव्य की रचना की जिसमें राजा रत्नसेन और पद्मिनी की कथा का राजस्थानी मिली भाषा में वर्णन है। जायसी ने कथा का जो रूप रखा है। उससे इसकी कथा में बहुत जगह भेद है––जैसे, जायसी ने हीरामन तोते के द्वारा पद्मिनी का वर्णन सुनकर रत्नसेन का मोहित होना लिखा है, पर इसमें भाटों द्वारा इकबारगी घर से निकल पड़ने का कारण इसमें यह बताया गया है कि पटरानी प्रभावती ने राजा के सामने जो भोजन रखा वह उसे पसंद न आया। इस पर रानी ने चिढ़कर कहा कि यदि मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता तो कोई पद्मिनी ब्याह लाओ।