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हिंदी-साहित्य का इतिहास

तब लड़की बोली तिसे जी, राखी मन धरि रोस।
नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस॥
हम्मे कलेबी जीणा नहीं जी, किसूँ करीजै बाद।
पदमणि का परणों न बीजी, जिमि भोजन होय स्वाद॥

इस पर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ––

राणों तो हूँ रतनसी, परणूँ पदमिनी नारि।

राजा समुद्र तट पर जा पहुँचा जहाँ से औघड़नाथ सिद्ध ने अपने योगबल से उसे सिंहलद्वीप पहुँचा दिया। वहाँ राजा की बहिन पद्मिनी के स्वयंवर की मुनादी हो रही थी––

सिंहलदीप नो राजियो रे सिंगल सिंह समान रे। तसु बहण छै पदमणि रे, रूपे रंभ समान रे॥
जोबन लहरयाँ जायछे रे, ते परणूँ भरतार रे। परतज्ञा जे पूरवै रे, तासु बरै, बरमाल रे॥

राज अपना पराक्रम दिखाकर पद्मिनी को प्राप्त करता है।

इसी प्रकार जायसी के वृत्त से और भी कई बातों मे भेद है। इस चरित्र की रचना गीति-काव्य के रूप में समझनी चाहिए।


सूफी-रचनाओं के अतिरिक्त

भक्तिकाल के अन्य आख्यान-काव्य

आश्रयदाता राजाओं के चरित-काव्य तथा ऐतिहासिक या पौराणिक आख्यानकाव्य लिखने की जैसी परंपरा हिंदुओं में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी वैसी पद्यबद्ध कल्पित कहानियाँ लिखने की नहीं थी। ऐसी कहानियाँ मिलती है, पर बहुत कम। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रसंगों या वृत्तों को कल्पना की प्रवृत्ति कम थी। पर ऐसी कल्पना किसी ऐसिहासिक या पौराणिक पुरुष या घटना का कुछ––कभी कभी अत्यंत अल्प––सहारा लेकर खड़ी की जाती थी। कहीं कहीं तो केवल कुछ नाम ही ऐतिहासिक या पौराणिक रहते थे, वृत्त सारा कल्पित रहता था, जैसे, ईश्वरदास कृत 'सत्यवती कथा'।

आत्मकथा का विकास भी नहीं पाया जाता। केवल जैन कवि बनारसीदास का 'अर्धकथानक' मिलता है।