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सामान्य परिचय


बाँट कर रखा है उससे भ्रम हो सकता है कि शायद किसी आधार पर उन्होंने अलंकारों का वर्गीकरण किया है। पर वास्तव में उन्होंने किसी प्रकार के वर्गीकरण का प्रयत्न नहीं किया है। दासजी की एक नई योजना अवश्य ध्यान देने योग्य है। संस्कृत-काव्य में अंत्यानुप्रास या तुक का चलन नहीं था, इससे संस्कृत के साहित्यग्रंथों में उसका विचार नहीं हुआ है। पर हिंदी-काव्य में वह बराबर आरंभ से ही मिलता है। अतः दासजी ने अपनी पुस्तक में उसका विचार करके बड़ा ही आवश्यक कार्य किया।

भूषण का 'भाविक छवि' एक नया अलंकार सा दिखाई पड़ता है, पर वास्तव में संस्कृत ग्रंथों के 'भाविक' का ही एक दूसरा या प्रवर्द्धित रूप 'भाविक' का संबंध कालगत दूरी से है; इसका देशगत से। बस इतना ही अंतर है।

दासजी के 'अतिशयोक्ति' के पाँच नए दिखाई पड़ने वाले भेदों में से चार तो भेदों के भिन्न भिन्न योग हैं। पाँचवाँ 'संभावनातिशयोक्ति' तो संबंधातिशयोक्ति ही है।

देव कवि का संचारियों के बीच 'छल' बढ़ा देना कुछ लोगो को नई सूझ समझ पड़ा है। उन्हें समझना चाहिए कि देव ने जैसे और सब बातें संस्कृत की 'रस-तरंगिणी' से ली हैं, वैसे ही यह 'छल' भी। सच पूछिए तो छल का अंतर्भाव अवहित्थ में हो जाता है।

इस बात का संकेत पहले किया जा चुका है कि हिंदी के पद्यबद्ध लक्षण-ग्रंथों में दिए हुए लक्षणों और उदाहरणों में बहुत जगह गड़बड़ी पाई जाती है। अब इस गड़बड़ी के संबंध में दो बातें कही जा सकती हैं। या तो यह कहें कि कवियों ने अपना मतभेद प्रकट करने के लिये जानबूझकर भिन्नता कर दी है अथवा प्रमादवश और का और समझकर। मतभेद तो तब कहा जाता जब कहीं कोई नूतन विचार-पद्धति मिलती। अतः दूसरा ही कारण ठहरता है। कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायगा––

(१) केशवदास ने रूपक के तीन भेद दंडी से लिए––अद्भुत रूपक, विरुद्व रूपक और रूपक रूपक। इनमें से प्रथम का लक्षण भी स्वरूप व्यक्त