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सामान्य परिचय

करना। अतः उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसो (विशेषतःशृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए। ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षण ग्रंथो से चुनकर इकट्ठे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी। अलंकारों की अपेक्षा नायिकाभेद की ओर कुछ अधिक झुकाव रहा। इससे शृंगार रस के अंतर्गत बहुत सुंदर मुक्तकरचना हिंदी में हुई। इस रस का इतना अधिक विस्तार हिंदी-साहित्य में हुआ कि इसके एक एक अंग को लेकर स्वतंत्र ग्रंथ रचे गए। इस रस का सारा वैभव कवियों ने नायिका भेद के भीतर दिखाया। रसग्रंथ वास्तव में नायिका-भेद के ही ग्रंथ हैं जिनमे और दूसरे रस पीछे से संक्षेप में चलते कर दिए गए है। नायिका शृंगार रस का आलंबन है। इस आलंबन के अगो का वर्णन एक स्वतंत्र विषय हो गया और न जाने कितने ग्रंथ केवल नखशिख-वर्णन के लिखे गए। इसी प्रकार उद्दीपन के रूप पट्ऋतु-वर्णन पर भी कई अलग पुस्तकें लिखी गई। विप्रलभ-संबंधी 'बारहमास' भी कुछ कवियो ने लिखे।

रीति-ग्रंथों की इस परंपरा द्वारा साहित्य के विस्तृत विकास में कुछ बाधा भी पड़ी। प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न भिन्न चित्य बातों तथा जगत् के नाना रहस्यों की और कवियों की दृष्टि नही जाने पाई। वह एक प्रकार से बद्ध और परिमित सी हो गई। उसका क्षेत्र संकुचित हो गया। बाग्धारा बँधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत से गोचर ओर अगोचर विषय रस-सिक्त होकर सामने आने से रह गए। दूसरी बात यह हुई कि कवियों की व्यक्तिगत विशेषता की अभिव्यक्ति का अवसर बहुत ही कम रह गया। कुछ कवियों के बीच भाषा-शैली, पद विन्यास, अलंकार-विधान आदि बाहरी बातों का भेद हम थोड़ा बहुत दिखा सकें तो दिखा सकें, पर उनकी अभ्यंतर प्रकृति के अन्वीक्षण में समर्थ उच्च कोटि की आलोचना की सामग्री बहुत कम पा सकते हैं।

रीति-काल में एक बड़े भारी अभाव की पूर्त्ति हो जानी चाहिए थी, पर वह नहीं हुई। भाषा जिस समय सैकड़ों कवियों द्वारा परमार्जित होकर प्रौढ़ता को पहुँची उसी समय व्याकरण द्वारा उसकी व्यवस्था होनी चाहिए थी कि जिससे